महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
58.कौरवों और पांडवों के सेनापति
दुर्योधन उनके पास गया और अंजलिबद्ध होकर बोला- "देवताओं की सेना का भगवान कार्तिकेय ने जिस शान से संचालन किया था, उसी तरह पितामह हमारे सेनानायक बनकर विजय एवं यश प्राप्त करेंगे।" जैसे ऋषभ (बैल) के पीछे बछड़े जाते है, वैसे ही हम भीष्म का अनुकरण करेंगे।" भीष्म ने तथास्तु कहा। पर साथ में एक शर्त भी लगा दी। बोले- "मेरे लिये जैसे धृतराष्ट्र के लड़के, वैसे ही पाण्डु के। दोनों ही मेरे लिये बराबर हैं। इसमें संदेह नहीं कि जो प्रतीज्ञा मैं कर चुका हूं, उसे निभाऊंगा। युद्ध का संचालन करके अपना ऋण अवश्य ही चुका दूंगा। शत्रु-दल के लाखों वीरों को मेरे बाणों का शिकार होना ही पड़ेगा। परंतु फिर भी पाण्डु-पुत्रों का वध मुझ से न हो सकेगा। लड़ाई की घोषणा करते समय मेरी सम्मति किसी ने नहीं ली थी। इसी कारण मैंने निश्चय कर लिया था कि जान-बूझकर, स्वयं आगे होकर पाण्डु-पुत्रों का वध मैं नहीं करूंगा। दूसरे सूत-पुत्र कर्ण, जो तुम लोगों का बहुत ही प्यारा है, शुरू से ही मेरा तथा मेरी सम्मतियों का विरोध करता आया है। अत: अच्छा हो कि पहले उसी से सलाह ली जाये। अगर वह सेनापति बन जाये तो मुझे कोई आपत्ति न होगी।" कर्ण का उद्दंड व्यवहार भीष्म को सदा से ही बहुत खटकता था। कर्ण घमंडी भी बहुत था। उसने भी हठ कर लिया कि जब तब भीष्म जीवित रहेंगे, तब तक वह युद्ध-भूमि में प्रवेश नहीं करेगा। भीष्म के मारे जाने के बाद ही वह लड़ाई में भाग लेगा और केवल अर्जुन को ही मारेगा। सद्गुणों से विभूषित सज्जनों में भी अक्सर बराबर के लोगों की प्रति स्पर्धा और अपने से बढ़े हुए लोगों के प्रति ईर्ष्या हुआ करती है। तब भी यह कोई नई बात नहीं थी। आज भी हम किस क्षेत्र में इसे नहीं पाते हैं? दुर्योधन ने सब आगा-पीछा सोचकर भीष्म की शर्त मान ली और उन्हीं को सेनापति नियुक्त किया। फलत: कर्ण तब तक के लिये युद्ध से विरत रहा। पितामह के नायकत्व में कौरव -सेना समुद्र की भाँति लहरें मारती हुई कुरुक्षेत्र की ओर प्रवाहित हुई। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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