महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
52.देवराज की भूल
एक बार देवराज इन्द्र अपनी राजसत्ता के गर्व में आकर मदांध हो गये। उन्हें देवोचित मर्यादा का भी ध्यान न रहा। कहीं से सुन लिया कि सिंहासन पर बैठे हुए राजा के लिये यह आवश्यक नहीं कि किसी का आदर करने के लिये आसन से उठा जाय। इसी को देवराज इन्द्र ने शास्त्र मान लिया। एक बार आचार्य बृहस्पति सभा में पधारे, पर देवराज अपनी उक्त भावना के फलस्वरूप न तो आसन से उठे, न अर्घ्यपाद्य-आसन आदि ही देकर देवगुरु का समुचित सत्कार किया। देवराज बृहस्पति जो सभी विद्याओं में पारंगत थे और जिनकी न केवल देवता, बल्कि असुर भी पूजा करते थे, देवराज की यह अशिष्टता देखकर बड़े खिन्न हुए। फिर भी यह सोचकर कि ऐश्वर्य के मद के कारण ही इन्द्र से यह भूल हुई है। वह चुपचाप इन्द्रसभा छोड़ अपने घर चले गये। देवगुरु के बिना इन्द्र की सभा श्री-विहीन हो गई। इन्द्र को जब अपनी भूल मालूम हुई तो उनका कलेजा धड़कने लगा। उन्हें भय हुआ कि कहीं कोई अनर्थ न हो जाये। उन्होंने आचार्य के पैरों में पड़कर क्षमा मांगने का निश्चय किया। लेकिन आचार्य का तो पता नहीं था। उन्होंने अदृश्य-रूप ले लिया और इन्द्र के बहुत खोजने पर भी उनका कहीं पता नहीं चला। इससे देवराज बड़े उदास हो गये और अनर्थ की भावी आशंका मानो उन्हें खाने लगी। इधर बृहस्पति के चले जाने के बाद ही देवताओं की शक्ति घटने लग गई। ज्यों–ज्यों देवताओं की शक्ति घटती गई त्यों-त्यों असुरों की शक्ति बढ़ती गई और मौका देखकर असुरों ने देवताओं पर धावा बोल दिया। देवताओं की असुरों के हाथ दुर्गत हुई। यह देख ब्रह्मा दु:खी हुए। उनके हृदय को चोट लगी। बोले- "देवगण! इन्द्र की नासमझी के कारण तुम लोग आचार्य बृहस्पति को गंवा बैठे। त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप बड़े तपस्वी हैं। अब तुम उनके पास जाओ और उनसे आचार्य बनने की प्रार्थना करो। तब तुम्हारा काम ठीक होगा।" यह सुन देवता बड़े खुश हुए और ब्रह्मदेव के कहे अनुसार त्वष्टा के यहाँ गये। त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप यद्यपि उम्र में छोटे थे, फिर भी महान तपस्वी थे। देवताओं ने जाकर उनसे निवेदन किया- "आप अल्पवयस्क होने पर भी सभी वेद-शास्त्रों में पारंगत हैं। कृपा करके हमारे आचार्य बन जायें।" विश्वरूप ने देवताओं की बात मान ली। तपस्वी और विशुद्ध आचरण वाले विश्वरूप से शिक्षा पाकर देवताओं की शक्ति बढ़ी और वे असुरों के त्रास से बच गये। विश्वरूप थे तो त्वष्टा के पुत्र; परंतु उनकी माता असुर-कुल की थीं- देव कुल की नहीं। इस कारण इन्द्र के मन में विश्वरूप के प्रति शंका पैदा हो गई। वह सोचने लगे कि जब माता असुर-कुल की हैं तो कहीं ये असुरों के पक्ष में न हो जायें। देवराज की यह शंका दिन-पर-दिन बढ़ती गई और वह यहाँ तक सोचने लगे कि उनके कारण मुझ पर कोई विपद न आ जाये। इस विचार से देवराज ने तपस्वी विश्वरूप को धोखा देकर उनकी तपस्या में विघ्न डालने के लिये अप्सराएं भेजनी शुरू कीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज