महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
49.मंत्रणा
यह कहकर श्रीकृष्ण ने बलराम की ओर देखा। तब बलराम उठे और बोले- "कृष्ण ने जो सलाह दी वह मुझे न्यायोचित लगती है और राजनीति के अनुकूल भी। आप लोगों ने कृष्ण की राय सुनी। कृष्ण ने जो उपाय बताया उससे युधिष्ठिर और दुर्योधन दोनों की ही भलाई हो सकती है। इसके लिये मैं कृष्ण को साधुवाद दिये बिना नहीं रह सकता। आप लोग जानते ही हैं कि कुंती के पुत्रों को आधा राज्य मिला था। उसे वे जुए में हार गये। अब वे फिर उसे प्राप्त करना चाहते हैं। यदि शांतिपूर्ण ढंग से-बिना युद्ध किये ही वे अपना राज्य प्राप्त कर सकें तो उससे न केवल पांडवों की बल्कि दुर्योधन की तथा सारी प्रजा की भलाई ही होगी। सब सुख-चैन से रह सकेंगे। इसमें कोई संदेह की बात नहीं है। इसके लिये युधिष्ठिर की ओर से दुर्योधन के पास एक ऐसा दूत भेजा जाना चाहिये जो दोनों के बीच संधि कराने की योग्यता और सामर्थ्य रखता हो। युधिष्ठिर की प्रार्थना दुर्योधन को सुनाकर उनका उत्तर युधिष्ठिर को बताने से पहले उसे भीष्म, द्रोण, विदुर, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, कर्ण और शकुनि आदि सभी संभ्रांत व्यक्तियों से सलाह-मशविरा करना होगा। उसे बड़ी नम्रता के साथ युधिष्ठिर की बात सबको सुनानी होगी। चाहे कैसा भी उत्तेजना का अवसर आवे, पर वह क्रोध में न आए। जरा झुकने ही से काम बनेगा, तनने से नहीं। युधिष्ठिर ने स्वेच्छा से जुआ खेला और राज्य गंवाया। बहुत-से मित्रों ने उन्हें मना किया था, पर युधिष्ठिर ने किसी की न सुनी। अपनी जिद्द पर अड़े रहे और सबकी सुनी-अनसुनी करके जुआ खेलने गये। यह भी युधिष्ठिर से छिपा नहीं था कि शकुनि जुए का मंजा हुआ खिलाड़ी है और वह इस खेल में उसके आगे ठहर नहीं सकते थे। शकुनि की निपुणता औरअपने नौसिखियेपन को भली-भाँति जानते हुये भी युधिष्ठिर को धृतराष्ट्र और उनके पुत्रों के आगे नम्रता के साथ जरा झुककर ही राज्य वापस लेने की प्रार्थना करनी होगी। इसके लिये मेरी राय में ऐसा व्यक्ति दूत बनकर जाये जो शांतिप्रिय एवं मृदुभाषी हो। युद्ध प्रिय न हो, उसका उद्देश्य किसी-न-किसी प्रकार समझौता कराना ही हो। हे राजागण! दुर्योधन को मीठी बातों से समझाने का प्रयत्न कीजिए। शांतिपूर्ण ढंग से जो संपति मिल जाये वही सुखप्रद होगी। युद्ध चाहे जिस उद्देश्य के लिये किया जाये उसमें अन्याय तो होता ही है। युद्ध के फलस्वरूप न्याय की स्थापना होना असंभव है।" बलराम के कहने का सार यह था कि युधिष्ठिर ने जान-बूझकर, अपनी इच्छा से जुआ खेलकर राज्य गंवाया था। यह बात ठीक है कि शर्त के अनुसार बारह बरस का वनवास और एक बरस का अज्ञातवास पूरा करके उन्होंने प्रण निभा लिया। इससे वे गुलामी से मुक्त होकर स्वतंत्र रह सकते हैं अवश्य; परन्तु खोये हुए राज्य को वापस मांगने का उन्हें अधिकार नहीं हो सकता। प्रतिज्ञा करते समय युधिष्ठिर या और किसी ने ऐसी कोई शर्त नहीं की थी कि युधिष्ठिर को राज्य भी वापस दे दिया जायेगा। हां, हाथ जोड़कर याचना करने पर भले ही कुछ प्राप्त हो जाये, किंतु अपना स्वत्व जताकर मांगने का अधिकार युधिष्ठिर को नहीं रहा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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