महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
48.विराट का भ्रम
यदि यह बात न होती तो इन सेवकों की हिम्मत कैसे पड़ती कि राजोचित आसनों पर जा बैठें! लोग यह सोच ही रहे थे कि इतने में राजा विराट सभा में प्रविष्ट हुए। यह देखकर कि पांचों सेवक राजकुमारों के लिये नियत आसन पर शान से बैठे हुए हैं, विराट के भी आश्चर्य और क्रोध का ठिकाना न रहा। उन्होंने अपने क्रोध को रोका और पांचों भाइयों के पास उनके आसनों पर जाकर पूछा कि आज भरी सभा में यह अविनय आप लोग क्यों कर रहे हैं। थोड़ी देर तक तो विराट और पांडवों के बीच में कुछ विवाद होता रहा; पर आखिर में पांडवों ने सोचा कि जब ज्यादा विवाद करना और अपने को छिपाये रखना ठीक नहीं। यह सोचकर अर्जुन ने पहले राजा विराट को और बाद में सारी सभा को अपना असली परिचय दे दिया। लोगों के आश्चर्य और आनंद का ठिकाना न रहा। सभा में कोलाहल मच गया। राजा विराट का हृदय कृतज्ञता, आनंद और आश्चर्य से तरंगित हो उठा। उन्होंने कहा- "पांचों पांडव और राजा द्रुपद की पुत्री मेरे यहाँ सेवा-टहल करते हुए अज्ञात होकर रहे; मैं कैसे इन सबका बदला चुकाऊं? कैसे इसके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करुं?" यह सोचकर राजा विराट का जी भर आया। युधिष्ठिर से बार-बार गले मिले और गदगद होकर कहा- "मैं आपका ऋण कैसे चुकाऊं? मेरा यह सारा राज्य आपका है। मैं आपका अनुचर बनकर रहूंगा।" युधिष्ठिर ने प्रेम से कहा- "राजन! मैं आपका बहुत आभारी हूँ। राज्य तो आप ही रखिये। आपने आड़े समय पर हमें आश्रय दिया वहीं लाखों राज्यों के बराबर है।" विराट ने कुछ सोचने के बाद अर्जुन से आग्रह किया आप राजकन्या उत्तरा से ब्याह कर लें। अर्जुन ने कहा-"राजन! आपका बड़ा अनुग्रह है पर आपकी कन्या को मैं नाच और गाना सिखाता रहा हूँ। मेरे लिये वह बेटी के समान है। इस कारण यह उचित नहीं कि मैं उसके साथ ब्याह करुं। हां, यदि आपकी इच्छा ही हो तो मेरे पुत्र अभिमन्यु के साथ उसका ब्याह हो जाये। उत्तरा को मैं अपनी पुत्रवधू स्वीकार करने के लिए तैयार हूँ।" राजा विराट ने यह बात मान ली। इसके कुछ समय बाद दुरात्मा दुर्योधन के दूतों ने आकर युधिष्ठिर से कहा- "कुंती पुत्र! महाराज दुर्योधन ने हमें आपके पास भेजा है। उनका कहना है कि उतावली के कारण प्रतिज्ञा पूरी होने से पहले अर्जुन पहचाने गये है। इसलिये शर्त कि अनुसार आपको बारह बरस के लिये और वनवास करना होगा।" इस पर धर्मराज युधिष्ठिर हंस पड़े और बोले- "दूतगण शीघ्र ही वापस जाकर दुर्योधन को कहो कि पितामह भीष्म और ज्योतिष शास्त्र के जानकारों से पूछकर इस बात का निश्चय करें कि अर्जुन जब प्रकट हुआ था तब प्रतिज्ञा की अवधि पूरी हो चुकी थी या नहीं। मेरा यह दावा है कि तेरहवां बरस होने के बाद ही अर्जुन ने धनुष की टंकार की थी।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज