महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
27.श्रीकृष्ण की प्रतिज्ञा
सैनिकों का वेतन बढ़ा दिया गया और नियत समय पर दिया जाने लगा। सेना में जो जवान भरती हुए उनको अच्छी तरह जांच लिया जाता था। इस प्रकार द्वारका सब तरह से सुरक्षित थी। शाल्व को बड़ी निराशा हुई और वह घेरा उठाकर भाग गया। श्रीकृष्ण जब द्वारका लौटे तो उन्हें पता चला कि शाल्व के आक्रमण के कारण द्वारका के लोगों को बड़ी मुसीबत उठानी पड़ी। यह देखकर श्रीकृष्ण को बड़ा क्रोध आया और उन्होंने सौभदेश पर चढ़ाई करके शाल्व को युद्ध में बुरी तरह परास्त किया। इसी बीच हस्तिनापुर में हुई घटनाओं की खबर श्रीकृष्ण को लगी। उन्हें यह पता चला कि पांचों पांडव द्रौपदी समेत वन में चले गये हैं। यह खबर पाते ही वह फौरन उस वन को चल पड़े जहाँ पांडव ठहरे हुए थे। श्रीकृष्ण जब पांडवों से भेंट करने जाने लगे तो उनके साथ कैकेय, भोज और वृष्टि जाति के नेता, चदिराज धृष्टकेतु आदि भी गये। इन लोगों के साथ पांडवों का बड़ा स्नेह-संबंध था और वे उनको बड़ी श्रद्धा से देखते थे। इस प्रकार एक क्षत्रिय राजाओं का भारी दल पांडवों के आश्रम में जा पहुँचा। दुर्योधन और उसके साथियों की करतूतों का हाल जब श्रीकृष्ण और दूसरे पांडव-मित्रों को मालूम हुआ तो उनके क्रोध का ठिकाना न रहा। एक स्वर में सबने कहा- "दुराचारी कौरवों के खून से हम पृथ्वी की प्यास बुझायेंगे।" आगन्तुक राजा लोग जब अपने मन की कह चुके तो द्रौपदी श्रीकृष्ण से मिली। श्रीकृष्ण को देखते ही उसकी आंखों से गंगा यमुना बह चली। बड़ी मुश्किल से वह बोली- "मैं एक ही वस्त्र पहने हुए थी, जब दृष्ट दु:शासन मेरे केश पकड़कर भरी सभा में मुझे घसीटता ले गया। धृतराष्ट्र के लड़कों ने मेरा कितना अपमान किया था, कैसी हंसी उड़ाई थी मेरी! पापियों ने समझ लिया था कि मैं उनकी लौंडी ही बन गई हूँ। भीष्म और धृतराष्ट्र तो मानो भूल ही गए कि मैं उनकी बहू और राजा द्रुपद की कन्या हूँ। मेरे पति भी मुझे इस अपमान से न बचा सके। हे जनार्दन! नीच दुष्टों द्वारा मैं सताई जा रही थी और सारी सभा देख रही थी! भीम का शारीरिक बल किसी काम का न रहा था, अर्जुन का गाण्डीव धनुष भी निकम्मा सा पड़ा रहा। मैं दीन असहाय-सी सब सहती रही।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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