महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
31.ऋष्यश्रृंग
"बेटा, होम के लिए समिधा क्यों नहीं लाये? इन कोमल पौधों को किसने तोड़ डाला? आहुति के लिए दूध-दही लिया या नहीं? यहाँ तुम्हारी सेवा-टहल के लिए कोई आया था क्या? तुम्हें यह अद्भुत फलों का हार किसने पहनाया? बेटा, तुम्हारे मुख पर मलिनता क्यों छाई हुई है?" विभाण्डक ने आतुर होकर पूछा। भोले ऋषि कुमार ने उत्तर दिया- "पिता जी, अलौकिक रूप वाले कोई एक ब्रह्मचारी कहीं से आये हुए थे। उनका तेज, उनकी मधुर बोली और उनके अद्भुत रूप का वर्णन मैं कैसे करूं? उनकी बातों और उनके नेत्रों ने मेरी अंतरात्मा में न जाने कैसा अवर्णनीय आनन्द और स्नेह भर दिया है। जब उन्होंने मुझे अपनी कोमल बाहों से आलिंगन में ले लिया तब मुझे ऐसे अलौकिक सुख का अनुभव हुआ जो कि इन फलों के खाने में भी नहीं आया था।" भोले-भाले ऋष्यश्रृंग इस प्रकार उस गणिका की वेशभूषा और व्यवहार आदि का वर्णन करने लगे। वह भ्रमवश उसे ब्रह्मचारी ही समझे हुए थे। बोले- "मेरा सारा शरीर मानो जल रहा है। मेरे मन में उस ब्रह्मचारी के पीछे-पीछे जाने की प्रबल इच्छा हो उठती है। आप भी उन्हें यहाँ बुलाइएगा, पिताजी। उनका तेज और उनके व्रत की महिमा मैं आपको कैसे बताऊं? उनको फिर देखने को मेरा जी ललचा रहा है।" इस प्रकार ऋष्यश्रृंग की बातें धीरे-धीरे इस हद तक पहुँच गई कि वे रोने और विलाप करने लगे। विभाण्डक को सब बातें धीरे-धीरे समझ में आ गई। उन्होंने पुत्र को समझाकर कहा- "बेटा, यह किसी राक्षस की माया है। राक्षस लोग हमेशा तपस्या में विघ्न डालने की ताक में रहते हैं। तपस्या भंग करने की कोई कुचेष्टा उठा नहीं रखते। तरह-तरह की चालें चलते हैं। उनसे सावधान रहना चाहिए। उन्हें पास भी न फटकने देना चाहिए।" इसके बाद विभाण्डक कुचक्र रचने वालों की तलाश मे तीन दिन तक फिरते रहे और जंगल की चप्पा–चप्पा भूमि छान डाली। फिर भी वहाँ उन्हें कोई न मिला। हताश होकर वह आश्रम में लौट गये। कुछ दिन बाद ऋषि विभाण्डक फिर एक बार फल-फूल लाने जंगल में दूर निकल गये। इतने में फिर वही गणिका ऋष्यश्रृंग के आश्रम की ओर धीरे-से आई। उसे दूरी से देखते ही ऋष्यश्रृंग उसी ओर ऐसे झपटे जैसे बांध के अचानक टूट जाने पर पानी प्रबल वेग से प्रवाहित होता है।"
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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