महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
31.ऋष्यश्रृंग
रोमपाद ने ऋषिकुमार को रनिवास में ठहराया और उनकी सेवा-टहल के लिए दास-दासियां नियुक्त कर दीं। बाद में अपनी पुत्री शांता का विवाह भी ऋष्यश्रृंग के साथ कर दिया। राजा की सभी कामनाएं तो पूरी हो गईं, किन्तु इस बात का भय बना रहा कि ऋषि विभाण्डक अपने पुत्र की खोज में आकर कहीं मुझे शाप न दे दें। मंत्रियों से सलाह करके राजा ने यह प्रबंध किया कि विभाण्डक के क्रोध को शांत करने का हर तरह का प्रयत्न किया जाये। इसके लिए राजा ने जंगल से लेकर राजधानी तक के तमाम रास्तों पर जहाँ-तहाँ सैकड़ों की संख्या में ग्वालों को गाय-बैलों के साथ ठहरा दिया। ग्वालों को कहा गया कि महर्षि विभाण्डक इस रास्ते से आने वाले हैं। उनका खूब आदर सत्कार करना और कहना- "ये खेत, गाय-बैल आदि सब आप ही के पुत्र की संपत्ति है। हम सब आप ही के अनुचर हैं। हमें आज्ञा कीजिए! आपके लिए हम क्या करें?" ऐसा कह-सुनकर हर तरह से मुनि के क्रोध को शांत करने की सब लोग कोशिश करना। उधर विभाण्डक ऋषि जब आश्रम लौटे तो पुत्र को वहाँ न पाकर बड़े घबराये। उन्होंने सारा वन छान डाला; पर कुमार का पता न चला। दु:ख और क्रोध से वह भर उठे। उन्हें विचार आया कि हो-न-हो यह अंग देश के राजा की करतूत होगी। यह विचार आते ही ऋषि तुरन्त रोमपाद राजा की राजधानी की ओर रवाना हो गए। वह नदियों और गांवों को पार करते हुए आगे बढ़ने लगे। क्रोध के कारण ऋषि की आंखें लाल हो रही थीं, मानो अंग नरेश को जलाकर भस्म ही कर देगें। किन्तु रोमपाद की आज्ञानुसार रास्ते में ग्वालों ने खूब दूध पिलाकर और मीठे वचनों से ऐसा स्वागत किया कि राजधानी में पहुँचते-पहुँचते ऋषि का क्रोध एकदम शांत हो गया। रोमपाद के राजभवन में पहुँचकर विभाण्डक ने देखा, ऋष्यश्रृंग राजभवन में इस प्रकार विराजमान हैं जैसे स्वर्ग में इन्द्र। उनकी बगल में रोमपाद की राजकुमारी ऋष्यश्रृंग की पत्नी-विराजमान थी। उसकी शोभा अनोखी ही थी। यह सब देखकर विभाण्डक बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने राजा को आशीर्वाद दिया और बेटे से बोले- "इस राजा की जो भी इच्छा हो, पूरी करना! एक पुत्र होने के बाद जंगल में लौट आना।" ऋष्यश्रृंग ने ऐसा ही किया। लोमश मुनि युधिष्ठिर से कहते हैं- "नल के साथ दमयन्ती, वशिष्ठ के साथ अरुन्धती, राम के साथ सीता, अगस्त्य के साथ लोपामुद्रा और युधिष्ठिर तुम्हारे साथ द्रौपदी की भाँति ऋष्यश्रृंग के साथ राजकुमारी शांता भी बाद में वन में चली गई। वन में उसने ऋष्यश्रृंग की बड़े प्रेम के साथ सेवा-टहल की और उनकी तपस्या में भाग लिया। यह वही स्थान है, जहाँ किसी समय ऋष्यश्रृंग का आश्रम था। इस नदी में स्नान करो और पवित्र होओ।" पांडवों ने बड़ी श्रद्धा के साथ उस तीर्थ में स्नान-पूजा की। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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