महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
31.ऋष्यश्रृंग
मौका देखकर उन गणिकाओं में से जो सबसे सुन्दर थी, वह आश्रम के अन्दर चली गई। ऋषिकुमार ऋष्यश्रृंग आश्रम में अकेले थे। "ऋषिकुमार! आप सकुशल तो है! फल-फूल तो आपको काफी मिल रहें हैं न! वन में ऋषियों की तपस्या कुशलपूर्वक हो रही है न! आपके पूज्य पिता का तप: तेज बढ़ ही रहा है! वेदाध्ययन ठीक से चल रहा है!" गणिका तरुणी ने ऋषियों की-सी बोलचाल में कुशल प्रश्न किये। अतिथि का सौन्दर्य, सुकुमार शरीर और सुमधुर कंठध्वनि भोले मुनिकुमार के लिए बिल्कुल नई थी। यह सब देख-सुन उनके मन में एक नई उमंग जाग्रत हुई। स्वाभाविक वासना सजग हो उठी। वह अपने उद्वेग को रोक न सके। उन्होंने यही समझा था कि यह भी कोई ऋषिकुमार ही होगा; पर उनके मन में न जाने क्यों कुछ गुदगुदी-सी पैदा हो गई। "आपके शरीर से आभा-सी फूट रही है। आप कौन हैं? मैं आपको प्रणाम करता हूँ। आपका आश्रम कहाँ है? आप कौन-सा व्रत धारण किये हुए हैं?" स्त्री और पुरुष का भेद न जाननेवाले भोले ऋष्यश्रृंग ने उस तरुणी गणिका से पूछा और उठकर आगन्तुक अतिथि के पांव धोये, अर्ध्य दिया और उसका इस तरह से आदर-सत्कार किया। तरुणी ने मीठे स्वर में कहा- "यहाँ से तीन योजन की दूरी पर हमारा आश्रम है। मैं वहाँ से आपके लिए ये फल लायी हूँ। आप मुझे प्रणाम न करें। मैं इस योग्य नहीं हूँ।" "हमारा नमस्कार करने का ढंग निराला है। चाहता हूँ कि उसी ढंग से आपको नमस्कार करूं।" ऋषिकुमार उसके हाव-भाव और मधुर स्वर से मुग्ध होकर देखते रहे कि इतने में वह गणिका नगर से लाये हुए विविध पकवान, मोदक आदि उन्हें खिलाने लगी। उसके बाद सुगंधित तथा रंग-बिरंगी फूलों की मालाएं पहना दीं और तरह-तरह के पेय-पदार्थ भी पीने को दिये। उसके बाद ऋषिकुमार का आलिंगन करके चुम्बन कर लिया और हसंकर बोली- "यही हमारा नमस्कार करने का ढंग है, ऋषिकुमार!" इस प्रकार ऋषिकुमार और वह गणिका सुन्दरी हास-विलास कर रहे थे कि उस तरुणी को ख्याल आया कि अब ऋषि विभाण्डक के लौटने का वक्त हो गया है। वह कुछ चंचल हो उठी और ऋषिकुमार से बोली- "अब बहुत देर हो गई। अग्निहोत्र का समय हो आया। अब मुझे चलना चाहिए। कभी आप भी हमारे आश्रम में पधारकर अनुगृहीत करें।" इस प्रकार कहकर वह गणिका जल्दी से आश्रम से खिसक गई। उधर विभाण्डक ऋषि आश्रम लौटे तो वहाँ का हाल देखकर चौंक पड़े। हवन-सामग्रियां इधर-उधर बिखरी पड़ी थी। आश्रम साफ नहीं किया गया था। लताएं और पौधे टूटे-पड़े थे और उनके पत्ते इधर-उधर बिखरे पड़े थे। ऋषि कुमार का मुखमलिन था। हमेशा की भाँति उसमे ब्रह्मचर्य तेज नहीं था। काम वासना के कारण वह उद्-भ्रांत से मालूम होते थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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