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[[ईश्वर|भगवान]] के मन्दिर में मेरा पादोदक पीया है।’ स्वरुप दामोदर इसे अपराध ही नहीं समझते थे। उनकी दृष्टि में [[जगन्नाथ मंदिर पुरी|जगन्नाथ जी]] में और महाप्रभु में किसी प्रकार का अन्तर ही नहीं था, फिर भी प्रभु को शान्त करने के निमित्त उन्होंने उस भक्त पर बनावटी क्रोध प्रकट करते हुए उसे डाँटा और उसका गला पकड़कर बाहर निकाल दिया। इस पर भक्त को बड़ी प्रसन्नता हुई। | [[ईश्वर|भगवान]] के मन्दिर में मेरा पादोदक पीया है।’ स्वरुप दामोदर इसे अपराध ही नहीं समझते थे। उनकी दृष्टि में [[जगन्नाथ मंदिर पुरी|जगन्नाथ जी]] में और महाप्रभु में किसी प्रकार का अन्तर ही नहीं था, फिर भी प्रभु को शान्त करने के निमित्त उन्होंने उस भक्त पर बनावटी क्रोध प्रकट करते हुए उसे डाँटा और उसका गला पकड़कर बाहर निकाल दिया। इस पर भक्त को बड़ी प्रसन्नता हुई। | ||
− | पीछे से भक्तों के कहने पर उसने प्रभु के पैरों में पड़कर क्षमा याचना की। महाप्रभु ने हंसकर उसके गाल पर धीरे से एक चपत जमा दिया। प्रेम के जपत का पाकर वह अपने भाग्य को सराहना करने लगा। इस प्रकार दोनों मन्दिरों को तथा मन्दिर के आंगनों का भलीभाँति साफ किया। जब सफाई हो गयी तब प्रभु ने संकीर्तन करने की आज्ञा दी। सभी भक्त अपने अपने ढोल करतालों को लेकर संकीर्तन करने लगे। सभी भक्त [[कीर्तन]] के वाद्यों के साथ उद्दण्ड नृत्य करने लगे। भक्तवृन्द अपने आपे को भूलकर संकीर्तन के साथ नृत्य कर रहे थे। नृत्य करते करते अद्वैताचार्य के पुत्र गोविन्द मूर्च्छित होकर गिर पड़े। उन्हें मूर्च्छित देखकर महाप्रभु ने संकीर्तन को बंद कर देने की आज्ञा दी। सभी [[भक्त|भक्त]] गोविन्द को सावधान करने के लिये भाँति भाँति के उपचार करने लगे, किन्तु गोविन्द की मूर्छा भंग ही नहीं होती थी। सभी ने समझा कि गोविन्द का शरीर अब नहीं रह सकता। अद्वैताचार्य भी पुत्र को मूर्च्छित देखकर अत्यन्त दु:खी हुए। तब महाप्रभु ने उसकी छाती पर हाथ रखकर कहा- ‘गोविन्द ! उठते क्यों नहीं ! बहुत देर हो गयी, चलो स्नान के लिये चलें।’ | + | पीछे से भक्तों के कहने पर उसने प्रभु के पैरों में पड़कर क्षमा याचना की। महाप्रभु ने हंसकर उसके गाल पर धीरे से एक चपत जमा दिया। प्रेम के जपत का पाकर वह अपने भाग्य को सराहना करने लगा। इस प्रकार दोनों मन्दिरों को तथा मन्दिर के आंगनों का भलीभाँति साफ किया। जब सफाई हो गयी तब प्रभु ने संकीर्तन करने की आज्ञा दी। सभी भक्त अपने अपने ढोल करतालों को लेकर संकीर्तन करने लगे। सभी भक्त [[कीर्तन]] के वाद्यों के साथ उद्दण्ड नृत्य करने लगे। भक्तवृन्द अपने आपे को भूलकर संकीर्तन के साथ नृत्य कर रहे थे। नृत्य करते करते अद्वैताचार्य के पुत्र गोविन्द मूर्च्छित होकर गिर पड़े। उन्हें मूर्च्छित देखकर महाप्रभु ने संकीर्तन को बंद कर देने की आज्ञा दी। सभी [[भक्त|भक्त]] गोविन्द को सावधान करने के लिये भाँति-भाँति के उपचार करने लगे, किन्तु गोविन्द की मूर्छा भंग ही नहीं होती थी। सभी ने समझा कि गोविन्द का शरीर अब नहीं रह सकता। अद्वैताचार्य भी पुत्र को मूर्च्छित देखकर अत्यन्त दु:खी हुए। तब महाप्रभु ने उसकी छाती पर हाथ रखकर कहा- ‘गोविन्द ! उठते क्यों नहीं ! बहुत देर हो गयी, चलो स्नान के लिये चलें।’ |
बस, महाप्रभु के इतना कहते ही गोविन्द हरि हरि करके उठ पड़े और फिर सभी भक्तों को साथ लेकर प्रभु स्नान करने के लिये गये। घंटों सरोवर में सभी भक्त जलक्रीडा करते रहे। महाप्रभु भक्तों के ऊपर [[जल]] उलीचते थे और सभी भक्त साथ ही मिलकर प्रभु के ऊपर जल की वर्षा करते। इस प्रकार स्नान कर लेने के अनन्तर सभी ने आकर [[नृसिंह अवतार|नृसिंह भगवान]] को प्रणाम किया और मन्दिर के जगमोहन मे बैठ गये। | बस, महाप्रभु के इतना कहते ही गोविन्द हरि हरि करके उठ पड़े और फिर सभी भक्तों को साथ लेकर प्रभु स्नान करने के लिये गये। घंटों सरोवर में सभी भक्त जलक्रीडा करते रहे। महाप्रभु भक्तों के ऊपर [[जल]] उलीचते थे और सभी भक्त साथ ही मिलकर प्रभु के ऊपर जल की वर्षा करते। इस प्रकार स्नान कर लेने के अनन्तर सभी ने आकर [[नृसिंह अवतार|नृसिंह भगवान]] को प्रणाम किया और मन्दिर के जगमोहन मे बैठ गये। |
01:05, 11 अक्टूबर 2017 के समय का अवतरण
श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी117. गुण्टिचा (उद्यान मन्दिर) मार्जन
पीछे से भक्तों के कहने पर उसने प्रभु के पैरों में पड़कर क्षमा याचना की। महाप्रभु ने हंसकर उसके गाल पर धीरे से एक चपत जमा दिया। प्रेम के जपत का पाकर वह अपने भाग्य को सराहना करने लगा। इस प्रकार दोनों मन्दिरों को तथा मन्दिर के आंगनों का भलीभाँति साफ किया। जब सफाई हो गयी तब प्रभु ने संकीर्तन करने की आज्ञा दी। सभी भक्त अपने अपने ढोल करतालों को लेकर संकीर्तन करने लगे। सभी भक्त कीर्तन के वाद्यों के साथ उद्दण्ड नृत्य करने लगे। भक्तवृन्द अपने आपे को भूलकर संकीर्तन के साथ नृत्य कर रहे थे। नृत्य करते करते अद्वैताचार्य के पुत्र गोविन्द मूर्च्छित होकर गिर पड़े। उन्हें मूर्च्छित देखकर महाप्रभु ने संकीर्तन को बंद कर देने की आज्ञा दी। सभी भक्त गोविन्द को सावधान करने के लिये भाँति-भाँति के उपचार करने लगे, किन्तु गोविन्द की मूर्छा भंग ही नहीं होती थी। सभी ने समझा कि गोविन्द का शरीर अब नहीं रह सकता। अद्वैताचार्य भी पुत्र को मूर्च्छित देखकर अत्यन्त दु:खी हुए। तब महाप्रभु ने उसकी छाती पर हाथ रखकर कहा- ‘गोविन्द ! उठते क्यों नहीं ! बहुत देर हो गयी, चलो स्नान के लिये चलें।’ बस, महाप्रभु के इतना कहते ही गोविन्द हरि हरि करके उठ पड़े और फिर सभी भक्तों को साथ लेकर प्रभु स्नान करने के लिये गये। घंटों सरोवर में सभी भक्त जलक्रीडा करते रहे। महाप्रभु भक्तों के ऊपर जल उलीचते थे और सभी भक्त साथ ही मिलकर प्रभु के ऊपर जल की वर्षा करते। इस प्रकार स्नान कर लेने के अनन्तर सभी ने आकर नृसिंह भगवान को प्रणाम किया और मन्दिर के जगमोहन मे बैठ गये। उसी समय महाराज ने चार-पाँच आदमियों के लिये जगन्नाथ जी का महाप्रसाद भिजवाया। महाप्रभु सभी भक्तों के सहित प्रसाद पाने लगे। महाप्रसाद में छूतछात का तो विचार ही नहीं था, सभी एक पंक्ति में बैठकर साथ ही साथ प्रसाद पाने लगे। सार्वभौम भट्टाचार्य भी अपने आचार-विचार और पण्डितप ने के अभिमान को भुलाकर भक्तों के साथ बैठकर प्रसाद पा रहे थे। इस पर उनके बहनोई गोपीनाथर्चा ने कहा- ‘कहो, भट्टाचार्य महाशय ! आपका आचार-विचार और चौका-चूल्हा कहाँ गया?’ |