श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी99. सार्वभौम का भक्तिभाव
नौमि तं गौरचन्द्रं य: कुतर्ककर्कशाशयम्। एक दिन भट्टाचार्य महाशय महाप्रभु के वासस्थान पर प्रभु के दर्शन के निमित्त गये। प्रभु ने बड़े ही प्रेम से उन्हें बैठने के लिये आसन दिया। महाप्रभु की आज्ञा से आसन पर बैठने के अनन्तर हाथ जोड़े हुए सार्वभौम ने कहा- ‘प्रभो ! एक बात का स्मरण करके मुझे अपने ऊपर बड़ी भारी ग्लानि हो रही है। मैंने अपने शास्त्रीय ज्ञान के अभिमान में आपको साधारण संन्यासी समझकर उपदेश देने का मिथ्या अभिमान किया था, इससे मुझे बड़ा दु:ख हो रहा है, आचार्य गोपीनाथ जी के साथ आपकी कड़ी आलोचना भी की थी, इसलिये अब अपने उन पुराने कृत्यों पर बड़ी लज्जा आ रही है।’ महाप्रभु ने अत्यन्त ही स्नेह प्रदर्शित करतेहुए कहा- ‘आचार्य ! यह आप कैसी भूली-भूली-सी बातें कर रहे हैं? हाल तो जहाँ तक मैं समझता हूँ, आपने मेरे सम्बन्ध न तो कोई अनुचित बात ही कही और न कभी अशिष्ट व्यवहार ही किया। आप -जैसे श्रद्धालु, शास्त्रज्ञ विद्वान से कोई भी इस प्रकार के व्यवहार की आशा नहीं कर सकता। थोड़ी देर के लिये मान भी लें कि आपने कोई अनुचित बर्ताव किया भी तो वह तभी तक था, जब तक कि मेरा-आपका प्रगाढ़ प्रेम-सम्बन्ध नहीं हुआ था। प्रेम-सम्बन्ध हो जाने पर तो पुरानी सभी बातें भुला दी जाती हैं। प्रेम होने पर तो एक प्रकार के नूतन जीवन का आरम्भ होता है, जिस प्रकार जन्म होने पर पिछले सभी जन्मों की बातें भूल जाती हैं, उसी प्रकार प्रेम हो जाने पर तो पिछली बातों का ध्यान ही नहीं रहता। प्रेम में लज्जा, भय, संकोच, शिष्टाचार, क्षमा, अपराध आदि द्वैधी भाव को प्रकट करने वाली वृत्तियाँ रहती ही नहीं। वहाँ तो नित्य नूतन रस का आस्वादन करते रहना ही शेष रह जाता है। क्यों ठीक है न ?’ सार्वभौम ने इसका कुछ भी उत्तर नहीं दिया। वे क्षणभर चुपचाप ही बैठे रहे। थोड़ी देर के अनन्तर उन्होंने पूछा- ‘प्रभो ! भगवान के चरण-कमलों में अहैतु की अनन्यभक्ति उत्पन्न हो सके, ऐसा सर्वोत्तम साधन कौन सा है?’ महाप्रभु ने कहा- ‘सबके लिये एक ही रोग में एक ही ओषधि नहीं दी जाती। बुद्धिमान वैद्य प्रकृति देखकर औषधि तथा अनुपान में आवश्यकतानुसार परिवर्तन कर देता है। भोजन से शरीर को पुष्टि, चित्त की तुष्टि और क्षुधा की निवृत्ति- ये तीनों काम होते हैं, किंतु पुष्टि और क्षुधा-निवृत्ति के लिये एक-सा ही भोजन सबको नहीं दिया जाता। जिसे जो अनुकूल पड़े उसी का सेवन करना उसके लिये लाभप्रद है। शास्त्रों में भगवत-प्राप्ति के अनेक साधन तथा उपाय बताये हैं, किंतु इस कलिकाल में तो हरि-नाम स्मरण के अतिरिक्त कोई भी दूसरा साधन सुगमतापूर्वक नहीं हो सकता। वर्तमान समय में तो भगवन्नाम ही सर्वोत्तम साधन है।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जिन्होंने सार्वभौम भट्टाचार्य के कुतर्क-कर्कश हृदय को भक्तिभावपूर्ण बना दिया, उन सर्वभूमा श्रीगौरचन्द्र को हम प्रणाम करते हैं। चैतन्य चरितामृत म. ली. 6/1