श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी93. श्रीभुवनेश्वर महादेव
यौ तौ शंखकपालभूषितकरौ मालास्थिमालाधरौ प्रात:काल साक्षिगोपाल भगवान की मंगल-आरती के दर्शन करके महाप्रभु आगे के लिये चलने लगे। महाप्रभु के ह्दय में जगन्नाथ जी के दर्शन की इच्छा अधिकाधिक उत्कट होती जाती थीं। ज्यों-ज्यों वे आगे बढ़ते थें, त्यों-ही-त्यों प्रभु की भगवान की इच्छा पूर्वापेक्षा प्रबल होती जा रही थी। रास्ते में चलते-चलते ही मुकुन्ददत ने अपने कोकिल-कूजित कमनीय कण्ठ से संकीर्तन का यह पद आरम्भ कर दिया-
सभी ने मुकुन्ददत्त के स्वर में स्वर मिलाया। संकीर्तन की सुरीली तान से उस जनशून्य नीरव पथ में चारों ओर इसी संकीर्तन-पद की गूंज सुनायी देने लगी। महाप्रभु भावावेश में आकर नृत्य करने लगे। किसी को कुछ खबर ही नहीं थी कि हम लोग किधर चल रहे हैं, मन्त्र से कीले हुए मनुष्य की भाँति उन सबके शरीर अपने-आप ही आगे की ओर चले जा रहे थे। रास्ता किधर से है और हम कहाँ पहुँचेंगें, इस बात का किसी को ध्यान ही नहीं था। इस प्रकार प्रेम में विभोर होकर आनन्द-नृत्य करते हुए प्रभु अपने साथियों के सहित भूवनेश्वर नामक तीर्थ में पहुँचे। वहाँ पर ‘बिन्दुसर’ नाम का एक पवित्र सरोवर है। इस सरोवर के सम्बन्ध में ऐसी कथा है कि शिव जी ने सम्पूर्ण तीर्थो का बिन्दु-बिन्दु भर जल लाकर इस सरोवर की प्रतिष्ठा की, इसीलिये इसका नाम ‘बिन्दुसर’ अथवा ‘बिन्दुसागर’ हुआ। महाप्रभु ने सभी भक्तों के सहित बिन्दुसागर-तीर्थ में स्नान किया और स्नान के अनन्तर आप भुवनेश्वर महादेव जी के मन्दिर में गये। भगवान भुवनेश्वर की भुवनमोहिनी मंजुल मूर्ति के दर्शन से प्रभु मूर्च्छित हो गये, थोड़ी देर के पश्चात बाह्यज्ञान होने पर आपने संकीर्तन आरम्भ कर दिया। भक्तों के सहित प्रभु दोनों हाथ ऊपर उठाकर ‘शिव-शिव शम्भो, हरहर महादेव’ इस पद को गा-गाकर जोरों से नृत्य कर रहे थे। सैकड़ों मनुष्य प्रभु को चारों ओर से घिरे हुए खड़े थे। भुवनेश्वर महादेव जी का मन्दिर बहुत प्राचीन है और ये शिव जी बहुत पुराने हैं। भुवनेश्वर को गुप्तकाशी भी कहते हैं। हजारों यात्री दूर-दूर से भगवान भुवनेश्वर के दर्शन के लिये आते हैं और इनके मन्दिर में सदा पूजा होती ही रहती है। महाप्रभु चारों ओर जलते हुए दीपकों को देखकर प्रभु में उन्मत-से हो गये। चारों ओर छिटकी हुई पूजन की सामग्री से वह स्थान बड़ा ही मनोहर मालूम पड़ता था। महाप्रभु बहुत देर तक मन्दिर में कीर्तन करते रहे और वहीं उस दिन उन्होने विश्राम किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भगवान हरि और भगवान भोलेश्वर सदा हमारे पापों को हरण करते रहें। वे हरि-हर भगवान कैसे हैं? एक ने तो हाथ में शंख धारण कर रखा है, दूसरे ने कपाल ही ले रखा है। एक ने गले में सुन्दर वैजयन्ती माला धारण कर रखी हैं तो दूसरे नरमुण्डों की ही माला पहने हुए है। एक द्वारका में निवास करते हैं, तो दूसरे श्मशान में ही पड़े रहते हैं। एक गरुड पर सवारी करते हैं, तो दूसरे बूढ़े बैल पर ही चढ़कर घूमते हैं। एक के दो पुत्र है, तो दूसरे के तीन नेत्र हैं, एक ने बालिका यज्ञ विध्वंस किया है, तो दूसरे ने अपने गणों से दक्षप्रजापति के यज्ञमण्डप को चौपट कराया है। एक की प्राणप्रिया समुद्रतनया लक्ष्मी है, तो दूसरे शैलसुता पार्वती को ही प्राणों से भी अधिक प्यार करते हैं। सु. र. भां. 14/8