श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी165. गोवर्धन के भ्रम से चटकगिरि की ओर गमन
महाप्रभु की अब प्राय: तीन दशाएँ देखी जाती थीं– अन्तर्दशा, अर्धबाह्यदशा और बाह्यदशा। अन्तर्दशा में वे गोपीभाव से या राधाभाव से श्रीकृष्ण के विरह में, मिलन में भाँति-भाँति के प्रलाप किया करते थे। अर्धबाह्यदशा में अपने को कुछ-कुछ समझने लगते और अब थोड़ी देर पहले जो देख रहे थे उसे ही अपने अन्तरंग भक्तों को सुनाते थे और उस भाव के बदलने के कारण पश्चात्ताप प्रकट करते हुए रुदन भी करते थे। बाह्यदशा में खूब अच्छी-भली बातें करते थे और सभी भक्तों को यथायोग्य सत्कार करते, बड़ो को प्रणाम करते, छोटों की कुशल पूछते। इस प्रकार उनकी तीन ही दशाएँ भक्तों को देखने में आती थीं। तीसरी दशा में तो वे बहुत ही कम कभी-कभी आते थे, नहीं तो सदा अन्तर्दशा या अर्धबाह्यदशा में ही मग्न रहते थे। स्नान शयन, भोजन और पुरुषोत्तदर्शन, ये तो शरीर के स्वभावानुमान स्वत: ही सम्पन्न होते रहते थे। अर्धबाह्यदशा में भी इन कामों में कोई विघ्न नहीं होता था। प्राय: उनका अधिकांश समय रोने में और प्रलाप में ही बीतता था। रोने के कारण आँखें सदा चढ़ी सी रहती थीं, निरन्तर की अश्रुधारा के कारण उनका वक्ष:स्थल सदा भीगा ही रहता था। अश्रुओं की धारा बहने से कपोलों पर कुछ हलकी सी पपड़ी पड़ गयी थी और उनमें कुछ पीलापन भी आ गया था। रामानन्द राय और स्वरूप दामोदर ही उनके एकमात्र सहारे थे। विरह की वेदना में इन्हें ही ललिता और विशाखा-समझकर तथा इनके गले से लिपटकर वे अपने दु:खों को कुछ शान्त करते थे। स्वरूप गोस्वामी के कोकिल कूजित कण्ठ से कविता श्रवण करके वे परमानन्द सुख का अनुभव करते थे। उनका विरह उन प्रेममयी पदावलियों के श्रवण से जितना ही अधिक बढ़ता था, उतनी ही उन्हें प्रसन्नता होती थी और वे उठकर नृत्य करने लगते थे। एक दिन महाप्रभु समुद्र की ओर जा रहे थे, दूर से ही उन्हें बालुका का चटक नामक पहाड़- सा दीखा। बस, फिर क्या था, जोरों की हुंकार मारते हुए आप उसे ही गोवर्धन समझकर उसी ओर दौड़े। इनकी अद्भुत हुंकार को सुनकर जो भी भक्त जैसे बैठा था, वह वैसे ही इनके पीछे दौडा। किन्तु भला, ये किसके हाथ आने वाले थे। वायु की भाँति आवेश के झोकों के साथ उड़े चले जा रहे थे। उस समय इनके सम्पूर्ण शरीर में सभी सात्त्विक विकार उत्पन्न हो गये थे। बड़ी ही विवित्र और अभूतपूर्व दशा थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीरघुनाथदास गोस्वामी कहते हैं– नीलाचंल के निकट समुद्र की बालुका के चटकपर्वत को देखकर गोवर्धन भ्रम से ‘मैं गिरिराज गोवर्धन के दर्शन करूँगा’ ऐसा कहकर महाप्रभु उस ओर दौड़ने लगे। अपने सभी विरक्त वैष्णवों से वेष्टित वही गौरांग हमारे हृदय में उदित होकर हमें पागल बना रहे हैं। चैतन्यस्तवकल्पवृक्ष