श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी45. श्रीनृसिंहावेश
श्रीवास पण्डित नृसिंह भगवान के उपासक थे, वे अपने पूजागृह में बैठे हुए भक्तिभाव से नृसिंह भगवान का विधिवत पूजन कर रहे थे। इतने ही में उन्हें अपने घर के किवाड़ों पर जोर से खट-खट की आवाज सुनायी पड़ी, मानो कोई जोरों के साथ किवाड़ों को खड़खड़ा रहा हो। श्रीवास का ध्यान भंग हुआ। वे डर-से गये कि किवाड़ों को इतने जोर से कौन खड़खड़ा रहा है। उन्होंने पूछा- ‘कौन है?’ बाहर से आवाज आयी- ‘जिसका तुम पूजन कर रहे हो, जिसे अब तक अप्रत्यक्ष मानकर पूजा करते थे, उसे प्रत्यक्ष देख लो।’ यह सुनकर श्रीवास पण्डित कुछ सिटपिटा-से गये और उन्होंने डरते-डरते किवाड़ खोले। इतने में ही श्रीवास क्या देखते हैं कि अद्भुत रूप-लावण्य से युक्त शचीनन्दन श्रीविश्वम्भर निर्भय भाव से पूजागृह में चले जा रहे हैं। वे जाते ही पूजा के सिंहासन पर विराजमान हो गये। श्रीवास पण्डित को ऐसा प्रतीत हुआ कि साक्षात विष्णु भगवान विश्वम्भर के रूप में प्रकट हुए हैं, उनके चार हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म सुशोभित हो रहे हैं, गले में वैजयन्ती माला पड़ी हुई है, एक बड़े भारी मत्त सिंह की भाँति बार-बार हुंकार कर रहे हैं। श्रीवास प्रभु के ऐसे भयंकर रूप को देखकर भयभीत-से हो गये। भगवान के सिंहासन पर बैठे प्रभु घोर गम्भीर स्वर से सिंह की भाँति दहाड़ते हुए कहने लगे- ‘श्रीवास! अभी तक तुमने हमें पहचाना नहीं। नाड़ा (अद्वैताचार्य) तो हमारी परीक्षा करने के ही निमित्त शान्तिपुर चले गये। तुम्हें किसी प्रकार का भय न करना चाहिये। हम एक-एक दुष्ट का विनाश करेंगे। भक्तों को कष्ट पहुँचाने वाला कोई भी दुष्ट हमारे सामने बच न सकेगा। तुम घबड़ाओं नहीं। शान्त-चित्त से हमारी स्तुति करो।’ प्रभु के इस प्रकार आश्वासन देने पर श्रीवास पण्डित कुछ देर बाद प्रेम में विह्वल होकर गद्गद-कण्ठ से स्तुति करने लगे- इस श्लोक को पढ़ने के अनन्तर वे दीनभाव से कहने लगे- ‘विश्वम्भर की जय हो, विश्वरूप अग्रज की जय हो, शचीनन्दन की जय हो, जगन्नाथप्रिय की जय हो, गौरसुन्दर की जय हो, मदनमोहन की जय हो, नृसिंहभयभंजन प्रभु की जय हो! इतने दिनों से मैं अज्ञानान्धकार में इधर-उधर भटक रहा था। आज गुरुरूप से प्रभु साक्षात आपके दर्शन हुए। आज आपने अपना असली स्वरूप प्रकट करके मुझ पामर प्राणी को परम पावन बना दिया। आप ही ब्रह्मा हैं, आप ही विष्णु हैं, आप ही शिव हैं। सृष्टि के आदिकारण आप ही हैं। आपकी जय हो!’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हिरण्यकशिपु अपने सेवक से पूछता है-‘कौन है, कौन है?’ सेवक कहता है-‘प्रभो! सिंह है। ‘तब क्या हुआ, सिंह है तो होने दो।’ सेवक कहता है-‘प्रभो! उसका शरीर मनुष्य के समान है, यही तो महान आश्चर्य की बात है।’ वह सुनकर हिरण्यकशिपु कहने लगा-‘इस प्रकार का अदभुत जीव तो आज तक मैंने कभी देखा नहीं, अच्छा, उसे मेरे पास ले आओ।’ जल्दी से सेवक बोल उठा- ‘देखिये प्रभो! यह वह आ ही गया।’ हिरण्यकशिपु ने जल्दी से धनुष माँगते हुए कहा- ‘धनुष ! धनुष’ नौकरों की बुद्धि भ्रष्ट ही हो गयी थी, उन्होंने कहा-‘उसके पास धनुष नहीं हैं, ओहो! उसके तो बड़े-बड़े कर्कश नख है।’ वे लोग इतना कह ही रहे थे कि नृसिंह भगवान ने अपने कठोर और तीक्ष्ण नखों से दैत्येन्द्र हिरण्यकशिपु के वक्षः स्थल को विदीर्ण कर दिया। ऐसे नृसिंह भगवान हम लोगों की रक्षा करें। सु. र. भां. 20/55
- ↑ हे भक्तभयहारी भगवन! आप प्रसन्न हों, मैं आपकी स्तुति करता हूँ। प्रभो! आपकी मेघ के समान सलोनी श्यामसुन्दर मूर्ति है, शरीर पर बिजली के समान चमकीला पीताम्बर शोभायमान है, गुंजाओं के भूषणों से तथा मयूरपिच्छ के मुकुट से आपका श्रीमुख देदीप्यमान है। गले में वनमाला विराजमान है, एक हाथ में दही-भात का कौर लिये होने से तथा अन्य स्थानों में लकुटी, नरसिंहा और मुरली से आपकी शोभा अत्यन्त ही बढ़ी हुई है। आपके चरणयुगल बड़े ही कोमल हैं और नन्दबाबा को आप पिता कहकर पुकारते है। ऐसे आपके लिये-केवल आपकी ही प्राप्ति के निमित्त मैं प्रणाम करता हूँ। श्रीमद्भा. 10/14/1