श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी78. विष्णुप्रिया और गौरहरि
यस्यानुरागललितस्मितवल्गुमन्त्र- पितृगृह से जिस दिन विष्णुप्रिया पतिगृह में आयी थीं, उस दिन प्रभु भक्तों के साथ कुछ देर में गंगाजी से लौटे थे। आते ही भक्तों के सहित प्रभु ने भोजन किया। भोजन के अनन्तर सभी भक्त अपने-अपने स्थानों को चले गये। प्रभु भी अपने शयनगृह में जाकर शय्यापर लेट गये। इधर विष्णुप्रिया का हृदय धक्-धक् कर रहा था। उनके हृदय-सागर में मानो चिन्ता और शोक का बवण्डर-सा उठ रहा था। एक के बाद एक विचार आते और उनकी स्मृतिमात्र से विष्णुप्रिया कांपने लगतीं। ऐसी दशा में भूख-प्यास का क्या काम? मानो भूख-प्यास तो शोक और चिन्ता के भय से अपना स्थान परित्याग करके भाग गयी थीं। प्रात:काल से उन्होंने कुछ भी नहीं खाया था। पति के निकट बिना कुछ प्रसाद पाये जाना अनुचित समझकर उन्होंने प्रभु के उच्छिष्ट पात्रों में से दो-चार ग्रास अनिच्छापूर्वक माता के आग्रह से खा लिये। उनके मुख में अन्न भीतर जाता ही नहीं था। जैसे-तैसे कुछ खा-पीकर वे धीरे-धीरे पतिदेव की शय्या के समीप पहुँचीं। उस समय प्रभु को कुछ निन्द्रा-सी आ गयी थी। दुग्ध के स्वच्छ और सुन्दर झागों के समान सुकोमल गद्दे के ऊपर बहुत ही सफेद वस्त्र बिछा हुआ था। दो झालरदार स्वच्छ सफेद कोमल तकिये प्रभु के सिराहने रखे हुए थे। एक बाँह तकिये के ऊपर रखी थी। उस पर प्रभु का सिर रखा हुआ था। कमल के समान दोनों बड़े-बड़े़ नेत्र मुँदे हुए थे। उनके मुख के ऊपर घुंघराली काली-काली लटें छिटक रही थीं। मानो मकरन्द के लालची मत्त मधुपों की काली-काली पंक्तियाँ एक-दूसरे का आश्रय लेकर उस अनुपम मुख-कमल की मन-मोहक मधुरिमा का प्रेमपूर्वक पान कर रही हों। अर्धनिद्रित समय के प्रभु के श्रीमुख की शोभा को देखकर विष्णुप्रिया ठिठक गयीं। थोड़ी देर खड़ी होकर वे उस अनिर्वचनीय अनुपम आनन की अद्भुत आभा को निहारती रहीं। उनकी अधीरता अधिकाधिक बढ़ती ही जाती थी। धीरे से वे प्रभु के पैरों के समीप बैठ गयीं और अपने कोमल करों से शनै:-शनै: प्रभु के पाद-पद्मों के तलवों को सुहारने लगीं। उन चरणों की कोमलता, अरुणता और सुकुमारता को देखकर विष्णुप्रिया का हृदय फटने लगा। वे सोचने लगीं- ‘हाय! प्राणप्यारे इन सुकोमल चरणों से कण्टकाकीर्ण पृथ्वी पर नंगे पैरों कैसे भ्रमण कर सकेंगे? तपाये हुए सुवर्ण के रंग के समान यह राजकुमार का –सा सुकुमार शरीर संन्यास के कठोर नियमों का पालन कैसे कर सकेगा? इन विचारों के आते ही विष्णुप्रिया जी के नेत्रों से मोतियों के समान अश्रुबिन्दु झड़ने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गोपियाँ परस्पर में कह रही हैं- ‘हाँ! जिन श्रीकृष्ण के स्नेह के साथ खिले हुए-सुन्दर मन्द-मन्द हास्ययुक्त मनोहर मुख को देखकर और उनके सुमधुर वचनों को सुनकर तथा लीला के सहित कुटिल कटाक्षों से उनकी मन्द-मन्द चितवन और प्रेमालिंगनों द्वारा रास-क्रीड़ा में हमने बहुत-सी बड़ी-बड़ी निशाएँ एक क्षण के समान बिता दीं, ऐसे अपने प्यारे श्रीकृष्ण के बिना हम इस दुस्सह विरहजन्य दु:ख को कैसे सहन कर सकेंगी? इसका सहन करना तो अत्यन्त ही कठिन है। श्रीमद्भा. 10/39/29