श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी44. धीर-भाव
नियमों का बन्धन सबको अखरता है। सभी प्राणी नियमों के बन्धनों को परित्याग करके स्वाधीन होना चाहते हैं, इसका कारण यही है कि प्राणिमात्र की उत्पत्ति आनन्द अथवा प्रेम से हुई। प्रेम में किसी प्रकार का नियम नहीं होता। प्राणिमात्र को प्रेम-पीयूष की ही पिपासा है। सभी इसी परमप्रिय पय के अभाव में अधीर होकर छटपटाते-से नजर आते हैं और सभी प्रकार के बन्धनों को छिन्न-भिन्न करके उसके समीप तक पहुँचना चाहते हैं, किंतु बिना नियमों का पालन किये उस तक पहुँचना भी असम्भव है। प्रेम के चारों ओर नियम की परिखा खुदी हुई है। बिना उसे पार किये हुए कोई प्रेम-पीयूष तक पहुँच ही नहीं सकता। यह ठीक है कि प्रेम स्वयं नियमों से अतीत है, उसके समीप कोई नियम नहीं, किंतु साथ ही वह नियम के बिना प्राप्त भी नहीं हो सकता। एक बार किसी भी प्रकार सही, प्रेम से पृथक हो गये अथवा अपने को उससे पृथक मान ही बैठे तो बिना नियमों की सहायता के उसे फिर से प्राप्त नहीं कर सकते। प्रेम को प्राप्त करने का एकमात्र साधन नियम ही है। जो प्रेम के नाम से नियमों का उल्लंघन करके विषय-लोलुपता के वशीभूत होकर अपनी इन्द्रियों को उनके प्रिय भोगों से तृप्त करते हैं, वे दम्भी हैं। प्रेम के नाम से इन्द्रिय-वासनाओं को तृप्त करना ही उनका चरम लक्ष्य है। प्रेम तो कल्पतरु है, उसकी उपासना जो मनुष्य जिस भाव से करेगा, उसे उसी वस्तु की प्राप्ति होगी। जो प्रेम के नाम से अच्छे-अच्छे पदार्थों को ही चाहते हैं, उन्हें वे ही मिलते हैं। जो प्रेम का बहाना बनाकर सुन्दर-सुन्दर विषय भोगना चाहते हैं, उन्हें उनके इच्छानुसार विषयों की ही प्राप्ति होती है, किंतु जो प्रेम के नाम से प्रेम को ही चाहते हैं और प्रेम के सिवा यदि त्रिलोकी का राज्य भी उनके सामने आ जाय तो उसे भी वे पीछे ठुकरा देते हैं। बहुधा लोगों को कहते सुना है ‘स्वर्ग के सुखों की तो बात ही क्या है, हम तो मोक्ष को भी ठुकरा देते हैं।’ ये सब कहने की बातें हैं, सुन्दर मिठाई को देखकर ही जिनके मुख में पानी भर आता है, वे स्वर्ग के दिव्य-दिव्य भोगों को भला कैसे ठुकरा सकेंगे? वे अज्ञ पुरुष स्वर्ग के सुखों से अनभिज्ञ हैं। जिसने चिरकाल तक नियमों का पालन नहीं किया है, उसका चित्त अपने वश हो सकेगा, वह कभी प्रेमी बन सकेगा, इसका अनुमान त्रिकाल में भी नहीं किया जाता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ नीतिनिपुण पुरुष चाहे निदा करें, चाहे स्तुति; लक्ष्मी चाहे रहें या स्वेच्छापूर्वक कहीं अन्यत्र चली जायँ, चाहे आज ही मृत्यु आ जाये या युगों तक जीवित बने रहें। धीरे पुरुष इन सब बातों की तनिक भी परवा नहीं करते, उन्होंने धर्म समझाकर जिस काम को ग्रहण कर लिया है, उससे वे कैसी भी विपत्ति पड़ने पर विचलित नहीं होते। भर्तृ. श. नी. 84