श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी116. राजपुत्र को प्रेम दान
कटकाधिपस्य तनयं गौरवर्णं मनोहरम। मनुष्य का एक स्वभाव होता है कि वह रहस्य की बातें जानने के लियेबड़ा उत्कण्ठित रहता है। जो बात सर्वसाधारण को सुलभ है, उसके लिये किसी की उत्कण्ठा नहीं होती, किन्तु यदि वही एकान्त में रखकर सर्वसाधारण की दृष्टि से हटा दी जाय तो लोगों की उसके प्रति जिज्ञासा बढ़ती ही जायगी। एक बात और है, जो वस्तु जितने ही अधिक परिश्रम से जितनी ही अधिक प्रतीक्षा के पश्चात प्राप्त होती है उसके प्रति उतनी ही अधिक प्रीति भी होती हैं। वस्तुएँ स्वयं मूल्यवान या अमूल्यवान नहीं हैं। उनकी प्राप्ति की सुलभता दुर्लभता देखकर देखकर ही लोगों ने उसका मूल्य स्थापित कर दिया है। यदि हीरा-मोती कंकड़ पत्थरों की भाँति सर्वत्र मिलने लगें, यदि सुवर्ण मिट्टी की भाँति वैसे ही बिना परिश्रम के खोदने से मिल जाया करे तो न तो जनता में इन वस्तुओं का इतना अधिक आदर होगा और न ये बहुमूल्य ही समझी जायँगी। इसीलिये मैं बार बार लोगों से कहता हूँ, अपने को मूल्यवान बनाना चाहते हो तो किसी भी काम में घोर परिश्रम करो, सर्वसाधारण लोगों से अपने को ऊँचा उठा लो, विश्व से प्रेम करना सीखो, तुम मुल्यवान हो जाओगे। संसार में सर्वश्रेष्ठ समझे जाने वाले राजे महाराजे ने तुम्हारे चरणों में लोटेंगे और तुम उनके मान सम्मान की कुछ भी परवा न करोगे। महाप्रभु ज्यों ज्यों राजा से न मिलने की इच्छा प्रकट करने लगे। त्यों ही त्यों कटकाधिप महाराज प्रतापरुद्र जी की प्रभु दर्शन की उत्सुकता अधिकाधिक बढ़ती गयी। अब वे सोते-जागते प्रभु के ही सम्बन्ध में सोचने लगे। जब सार्वभौम भट्टाचार्य ने कह दिया कि प्रभु स्वयं मिलने के लिये सहमत नहीं हैं, तब महाराज ने सार्वभौम के द्वारा प्रभु के अन्तरंग भक्तों के समीप प्रार्थना की कि वे प्रभु के चित्त को हमारी ओर आकर्षित करें। इसीलिये उन्होंने अत्यन्त स्नेह प्रकट करके राय रामानन्द जी को प्रभु के पास भेजा था। राय महाशय प्रभु के परम अन्तरंग भक्त बन चुके थे। उन्होंने प्रभु से कई बार निवदेन किया, किन्तु प्रभु ने राजा से मिलने की कभी सम्मति नहीं दी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कटकाधिप महाराज प्रतापरुद्र के गौर वर्ण वाले सुन्दर पुत्र को जिन्होंने प्रेमपूर्वक गले लगाया उन श्रीगौरचन्द्र को मैं प्रणाम करता हूँ। प्र. द. ब्र.