श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी77. शचीमाता और गौरहरि
प्रभु ने धैर्य के साथ कहा- ‘माता! तुम इतनी अधीर मत हो। भाग्य को मेटने की सामर्थ्य मुझ में नहीं है। विधाता ने मेरा-तुम्हारा संयोग इतने ही दिन का लिखा था। अब आगे लाख प्रयत्न करने पर भी मैं नहीं रह सकता। भगवान वासुदेव सबकी रक्षा करते हैं। उनका नाम विश्वम्भर है। जगत के भरण-पोषण का भार उन्हीं पर है। तुम हृदय से इस अज्ञानजन्य मोह को निकाल डालो और मुझे प्रेमपूर्वक हृदय से यति-धर्म ग्रहण करने की अनुमति प्रदान करो।’ रोते-रोते माता ने कहा- ‘बेटा! मैं बालकपन से ही तेरे स्वभाव को जानती हूँ। तू जिस बात को ठीक समझता है, उसे ही करता है। फिर चाहे उसके विरुद्ध साक्षात ब्रह्मा भी आकर तुझे समझावें तो भी तू उससे विचलित नहीं होता। अच्छी बात है, जिसमें तुझे प्रसन्नता हो, वही कर। तेरी प्रसन्नता में ही मुझे प्रसन्नता हैं। कहीं भी रह, सुखपूर्वक रह। चाहे गृहस्थी बनकर रह या यति बनकर। मैं तो तुझे कभी भुला ही नहीं सकती। भगवान तेरा कल्याण करें। किंतु तुझे जाना हो तो मुझसे बिना ही कहे मत जाना। मुझे पहले से सूचना दे देना। महाप्रभु ने इस प्रकार माता से अनुमति लेकर उसकी चरणवन्दना की और उसे आश्वासन देते हुए कहने लगे- ‘माता! तुमसे मैं ऐसी ही आशा करता था, तुमने योग्य माता के अनुकूल ही बर्ताव किया है। मैं इस बात का तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि तुमसे बिना कहे नहीं जाऊँगा। जिस दिन जाना होगा, उससे पहले ही तुम्हें सूचित कर दूँगा।’ इस प्रकार प्रभु ने माता को तो समझा-बुझाकर उससे आज्ञा ले ली। विष्णुप्रिया को समझाना थोड़ा कठिन था। वह अब तक अपने पितृगृह में थीं, इसलिये उनके सामने यह प्रश्न उठा ही नहीं था। प्रभु के संन्यास ग्रहण करने की बात सम्पूर्ण नवद्वीप नगर में फैल गयी थी। विष्णुप्रिया ने भी अपने पिता के घर में ही यह बात सुनी। उसी समय वह अपने पिता के घर से पतिदेव के यहाँ आ गयीं। |