श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी126. पुरी में गौड़ीय भक्तों का पुनरागमन
अमृतं राजसम्मानममृतं क्षीरभोजनम्। जो सचमुच हमारे हृदय को अत्यन्त ही प्यारा लगता हो, हृदय जिसके लिये तड़पता रहता हो, यदि ऐसे प्यारे के कहीं दर्शन मिल जायँ तो हृदय में कितनी अधिक प्रसन्नता होती होगी, इसका अनुभव सहृदय सच्चे प्रेमी ही कर सकते हैं। अपने प्यारे के निमित्त दुःख सहने में भी एक प्रकार का सुख प्रतीत होता है। प्यार के स्मरण में आनन्द है, उसके कार्य करने में स्वर्गीय सुख है, उसके लिये तड़पने में मधुरिमा है और उसके वियोगजन्य दुःख में भी एक प्रकार का मीठा-मीठा सुख ही है। सम्मिलन में क्या है इसे बताना हमारी बुद्धि के बाहर की बात है। रथ-यात्रा को उपलक्ष्य बनाकर गौड़ीय भक्त प्रतिवर्ष नवद्वीप से नीलाचल आते थे। वर्तमान समयके तीर्थयात्रीगण उस समय के तीर्थयात्रियों के दुःख का अनुमान लगा ही नहीं सकते। उस समय सर्वत्र पैदल ही यात्रियों को भाँति-भाँति के क्लेश देते थे और बहुत लोगो को तो दो-दो, तीन-तीन दिन तक पार होने के लिये प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। थोड़ी-थोड़ी दूर पर राज्यसीमा बदल जाती। विधर्मी शासक तीर्थ यात्रा करने वाले स्त्री-पुरुषों की विशेष परवा ही नहीं करते थे। परस्पर एक राजा से दूसरे राजा के साथ युद्ध होता रहता। युद्धकाल में यात्रियों को भाँति-भाँति की असुविधाएं उठानी पड़तीं, अपने ओढ़ने-बिछाने के वस्त्र स्वयं लादने पड़ते और धीरे-धीरे पूरी यात्रा पैदल ही समाप्त करनी पड़ती। इन्हीं सब बातों के कारण उस समय तीर्थयात्रा करना एक कठिन कार्य समझा जाता था। नवद्वीप में जगन्नाथ जी का बीस-पचीस दिन का पैदल रास्ता है, इतने दुःख होने पर भी गौर-भक्त बड़े ही उल्लास और आनन्द के सहित प्रभु-दर्शनों की लालसा से नीलाचल प्रतिवर्ष आते। पहले तो प्रायः पुरुष ही आया करते थे और बरसात के चार मास प्रभु के साथ रहकर अपने-अपने घरों को लौट जाते। दूसरे वर्षसे भक्तों की स्त्रियाँ भी आने लगीं और प्रभु के दर्शनों से अपने को धन्य बनाने लगीं। दूसरे वर्ष दो-चार परम भक्ता माताएं आयी थीं, तीसरे वर्ष प्रायः सभी भक्तों की स्त्रियाँ अपने छोटे-छोटे बच्चों को साथ लेकर प्रभु-दर्शनों की इच्छा से नीलाचल चलने के लिये प्रस्तुत हो गयीं। उन्हें घर का, कुटुम्ब-परिवार का तथा रुपये-पैसे का कुछ भी ध्यान नहीं था। उनके लिये तो 'अवध तहाँ जहाँ रामनिवासु' वाली कहावत थी। उनका सच्चा घर तो वही था जहाँ उनके प्रभु निवास करते हैं, इसलिये पतियों के मार्ग के भय दिखाने पर भी वे भयभीत न हुई और विष्णुप्रिया जी से पूछ-पूछकर प्रभु को जो पदार्थ अत्यन्त प्रिय थे उन्हें ही बना-बनाकर प्रभु के लिये साथ ले चली हैं। किसी ने प्रभु के लिये लड्डू ही बाँधे हैं, तो कोई भाँति-भाँति के मुरब्बे तथा अचारों को ही साथ ले चली हैं। किसी ने सन्देश बनाये हैं, तो किसी ने वर्षों तक न बिगड़ने वाली विविध प्रकार की खोये की मिठाइयाँ ही बनायी हैं। इस प्रकार सभी भक्त और उनकी स्त्रियाँ प्रभु के निमित्त विविध प्रकार के उपहार और खाद्य पदार्थ लेकर नीलाचलके लिये तैयार हुए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ संसार में भिन्न-भिन्न प्रकृति के पुरुष होते हैं, उन्हें जो चीजें अत्यन्त ही प्रिय प्रतीत होती हैं, उनके लिये वही वस्तुएँ अमृत हैं। मान-प्रतिष्ठा चाहने वाले को 'राजसम्मान' ही अमृत है। स्वादिष्ट पदार्थ खाने वालों के लिये क्षीर का भोजन ही अमृत है। गरीब लोगों के लिये जाड़े में अग्नि ही अमृत के समान है और प्रेमियों को अपने प्यारे का दर्शन हो जाना ही अमृततुल्य है। साधारणतया ये चारों बातें सभी लोगों को प्रिय होती हैं। सु.र.भां. 171। 508