श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी157. महात्मा हरिदास जी का गोलोकगमन
विनिश्चितं वदामि ते न चान्यथा वचंसि में। जिनकी भाग्यवती जिह्वा पर श्री हरि के मधुर नाम सदा विराजमान रहते हैं, नाम संकीर्तन के द्वारा जिनके रोम रोम में राम रम गया है, जिन्होंने कृष्ण-कीर्तन के द्वारा इस कलुषित कलेवर को चिन्मय बना लिया है, वे नाम प्रेमी संत समय समय पर संसार को शिक्षा देने के निमित्त इस अवति पर अवतरित होकर लोगों के सम्मुख नाम माहात्म्य पगकट करते हैं। वे नित्य सिद्ध और अनुग्रह सृष्टि के जीव होते हैं। न उनका जन्म है और न उनकी मृत्यु। उनकी कोई जाति नहीं, कुटुम्ब परिवार नहीं। वे वर्णाश्रम परे मत-मतान्तरों से रहित और यावतब भौतिक पदार्थों से संसर्ग रखने वाले सम्बन्ध हैं उन सभी से पृथक ही रहते हैं। अपने अलौकिक आचरण के द्वारा संसार को साधन पथ की ओर अग्रसर करने के निमित्त ही उनका अवतरण होता है। वे ऊपर से इसी कार्य के निमित्त उतरते हैं और कार्य समाप्त होने पर ऊपर चले जाते हैं। हम संसारी लोगों की दृष्टि में उनके जन्म मरण आदि सभी कार्य होते से दीखते हैं। वे जन्मते भी हैं, बढ़ते भी हैं, रहते भी हैं, खाते-पीते तथा उठते-बैठते से भी दीखते हैं, वृद्ध भी होते हैं और इस पांच भौतिक शरीर को त्यागकर मृत्यु को भी प्राप्त करते हैं। हम करें भी तो क्या करें, हमारी बुद्धि ही ऐसी बनी है। वह इन धर्मों से रहित व्यक्ति का अनुमान ही नहीं कर सकती। गोल छिद्र में तो गोल ही वस्तु आवेगी, यदि तुम उसमें उसी नाप की चौकोनी वस्तु डालोगे तो तुम्हारा परिश्रम व्यर्थ होगा। छिद्र की बनावट देखकर ही उसमें वस्तु डालनी चाहिये। इसीलिये कभी न मरने वाले अमर महात्माओं के भी शरीर त्याग का वर्णन किया जाता है। वास्तव में तो श्री हरिदास जी जैसे तब थे वैसे ही अब भी हैं, नमामृत ने उन्हें सदा के लिये जरा, व्याधि तथा मरण से रहित बनाकर अमर कर दिया। जो अमर हो गया उसकी मृत्यु कैसी ? उसके लिये शोक कैसा, उसकी मृत्यु भी एक प्रकार की लीला है और श्री चैतन्य उस लीला के सुचतुर सूत्रधार हैं। वे दृःख से रहित होकर भी दृःख करते से दीखते हैं, ममता मोह से पृथक होने पर भी वे उसमें सने से मालूम पड़ते हैं। शोक, उद्वेग और सन्ताप से अलग होने पर भी वे शोकयुक्त, उद्वेगयुक्त और संतापयुक्त से दृष्टिगोचर होते हैं। उनकी माया वे ही जानें। हम तो दर्शक हैं, जैसा देख रहे हैं, वैसा ही बतावेंगे, जैसा सुनेंगे, वैसा ही कहेंगे। लीला है, बनावट है, छद्म है, नाटक है या सत्य है, इसे वे ही जानें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मैं खूब सोच-विचारकर निश्चित रूप से कहता हूँ, मेरे वचनों को मिथ्या मत समझना। मैं कहता हूँ औऱ दावे के साथ कहता हूँ जो लोग श्री हरि का भजन करते हैं वे कठिनता से पार होने वाले इस असार संसार रूपी समुद्र को बात-की-बात में तर जाते हैं।