श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी24. चंचल पण्डित
सदयं हृदयं यस्य भाषितं सत्यभूषितम्। मिश्री को कहीं से भी खाओ उसका स्वाद मीठा ही होगा, घी-बूरे का लड्डू यदि टेढ़ा और इरछा-तिरछा भी बना हो तो भी उसके स्वाद में कोई कमी नहीं होती। इसी प्रकार प्रेम किसी भी प्रकार किया जाय, कहीं भी किया जाय, किसी के भी साथ किया जाय उसका परिणाम अनिर्वचनीय सुख ही होगा। हृदय में दया के भाव हों, अन्तःकरण शुद्ध हो, अपने स्वार्थ की मन में वाञ्छा न हो, फिर चाहे दूसरों के साथ कैसा भी बर्ताव करो, उन्हें चाहे गले से लगाकर आलिंगन करो या उनकी मधुर-मधुर भर्त्सना करो, दोनों में ही सुख है, दोनों से ही आनन्द प्राप्त होता है। निमाई अब विद्यार्थी नहीं हैं। अब उनकी गणना प्रसिद्ध पण्डितों में होने लगी है। अब वे गृहस्थी भी बन गये हैं और अध्यापक भी। ऐसी दशा में अब उन्हें गम्भीरता धारण करनी चाहिये जिससे लोग उनकी इज्जत-प्रतिष्ठा करें। किन्तु निमाई ने तो गम्भीरता का पाठ पढ़ा ही नहीं है। मानो वे संसार में सबसे बड़ी समझी जाने वाली मान-प्रतिष्ठा की कुछ परवाह ही नहीं रखते। ‘लोग हमारे इस व्यवहार से क्या सोचेंगे’ यह विचार उनके मन में आता ही नहीं। ‘लोगों को जो सोचना हो सोचते रहें। दुनियाभर के विचारों का हमने कोई ठेका थोडे़ ही ले लिया है। हमें तो जिसमें प्रसन्नता प्राप्त होगी, जिस काम से हमारा अन्तःकरण सुखी और शान्त होगा हम तो उसे ही करेंगे। लोग बकते हैं तो बकते रहें। हम किसी का मुँह थोड़े ही सी सकते हैं।’ बस, निमाई इन्हीं विचारों में मस्त रहते।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जिसके हृदय में प्राणिमात्र के प्रति दया के भाव हैं, वाणी प्रिय और सत्य से भूषित है और शरीर परोपकार के लिये समर्पित है फिर उसका कलि कर ही क्या सकता है? उसके लिये सदा ही सत्ययुग है। सु. र. भां. 163/192