श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी105. राय रामानन्द से साधन-सम्बन्धी प्रश्न
सञ्चार्य रामाभिधभक्तमेघे दोनों ही पागल हों, दोनों की दृष्टि में संसारी पदार्थ निस्सार हों, दोनों ही किसी एक ही मार्ग के पथिक हों और फिर उन दोनों का एकान्त में समागम हो, तो फिर उस आनन्द का तो कहना ही क्या? उसे ही अनिर्वचनीय आनन्द कहते हैं। उस आनन्द-रस का आस्वादन करना सब किसी के भाग्य में नहीं बदा है, जिसके ऊपर उनकी कृपा हो वही इस आनन्द का अधिकारी हो सकता है। राय रामानन्द जी के मुख से परम साध्यतत्त्व की बात सुनकर कहने लगा- ‘राय महाशय ! आपकी असीम अनुकम्पा से मैंने परम साध्यतत्त्व जान लिया। अब यह बताइये कि उसकी उपलब्धि कैसे हो? बिना साधन जाने हुए साध्य का ज्ञान व्यर्थ है, इसलिये जिस प्रकार इस महाभाव की प्राप्ति हो सके कृपा करके उस उपाय को और बताइये ?’ राय महाशय ने अत्यन्त ही अधीरता के साथ कहा- ‘प्रभो ! आप सर्वसमर्थ हैं। मैं संसारी पंक में फंसा हुआ विषयी जीव भला साध्य-साधन-तत्त्व को समझ ही क्या सकता हूँ? किन्तु आप अपने भावों को मेरे ही द्वारा प्रकट कराना चाहते हैं, तो आपकी इच्छा के विरुद्ध कर ही कौन सकता है। इसलिये आप मेरे हृदय में जो प्ररेणा करते जायंगे मैं वही कहता जाऊँगा।’ प्रभो ! श्रीराधिका जी का प्रेम सामान्य नहीं है। संसारी सुखों में आनन्द का अनुभव करने वाले पुरुष तो इसके श्रवण के भी अधिकारी नहीं हैं, इसलिये इसे परम गोप्य कहा गया है। इसे तो व्रज की गोपिकाएँ ही जान सकती हैं। गोपिकाएँ के अतिरिक्त किसी दूसरे का रस में प्रवेश नहीं। गोपिकाएँ इन्द्रिय-सुख की अभिलाषिणी नहीं, उन्हें तो श्रीराधिका के साथ कुंज में केलि करते हुए श्रीकृष्ण की वह कमनीय प्रेमलीला ही अत्यन्त प्रिय है। अपने लिये वे कुछ नहीं चाहती, उनकी सम्पूर्ण इच्छाएँ, सम्पूर्ण भावनाएँ, सम्पूर्ण चेष्टाएँ और मन, वाणी तथा इन्द्रियों की सम्पूर्ण क्रियाएं उन प्यारी-प्यारे के विहार के ही निमित्त होती हैं। जो उस अनिर्वचनीय रस का आस्वादन करना चाहते हैं, उन्हें अपनी सम्पूर्ण भावनाएं इसी प्रकार त्यागमय और नि:स्वार्थ बना लेनी चाहिये। गोपीभाव को धारण किये बिना कोई उस आनन्दामृत का पान ही नहीं कर सकता। गोपियों के प्रेम में सांसारिकता नहीं है। वह विशुद्ध है, निर्मल है, वासनारहित और इच्छारहित है। गोपियों के विशुद्ध प्रेम का ही नाम ‘काम’ है। इस संसारी ‘काम’ को ‘काम’ नहीं कहते। उस दिव्य प्रेमभाव का ही नाम यथार्थ में काम है, जिसकी इच्छा उद्धव आदि भक्तगण भी निरन्तर रुप से किया करते हैं।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ समुद्र-समान और महाप्रभु अपने भक्तिसिद्धान्तरूप जलराशि को भक्तवर रामानन्दरूप मेघ में संचारित करके पुन: उनसे यह सिद्धान्त सलिल को विभाजित कराकर स्वयं ही उसके ज्ञानरत्न का आकर बन उसे अपने में लीन कर लेते हैं अर्थात स्वयं ही तो रामानन्द के हृदय में स्फुरणा कराते हैं और स्वयं ही उसका फिर रसास्वादन करते हैं। चै. चरिता. म. ली. 8/1
- ↑ प्रेमैव गोपरामाणां काम इत्यगमत् प्रथाम। इत्युद्धवादयोऽप्येतं वाञ्छन्ति भगवत्प्रिया:।।(गौतमीतन्त्र)