श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी130. वृन्दावन के पथ में
सुजनं व्यजनं मन्ये चारुवंशसमुद्भवम्। पुरी से बहुत- से भक्त प्रभु के साथ वृन्दावन जाने की इच्छा से आये थे और बहुत- से भक्त नवद्वीप से उन के साथ हो गये थे, इसलिये प्रभु के साथ वृन्दावन चलने वालों की एक खासी भीड़ हो गयी थी। जिस प्रकार राजा, महाराजा और सामन्तगण विजयलाभ करने के लिये दूसरे देश पर चढ़ाई करते हैं, उसी प्रकार श्रीकृष्ण प्रेम में विभोर हुए भक्त प्रभु के साथ आनन्द और उत्साह के साथ वृन्दावन की ओर जा रहे थे। गंगा जी के किनारे-किनारे कार्तिक मास की शरीर को सुहावनी लगने वाली धूप में सभी सं कीर्तन करते हुए दौड़ लगा रहे थे। जिनके साथ साकार स्वरूप धारण कर के प्रेमदेव चल रहे हों उनके आनन्द का अनुमान लगा ही कौन सकता है? जिस गांव में मध्याह्न होता, वहीं पड़ाव पड़ जाता। बात- की-बात में ग्रामवासी प्रभु के सभी साथियों के भोजन आदि का प्रबन्ध कर देते। महाप्रभु भिक्षा कर के और ग्रामवासियों को श्रीकृष्णप्रेम प्रदान कर के आगे चल देते। इस प्रकार अनेक ग्रामों को अपनी पद-धूलि से पावन बनाते हुए तथा ग्रामवासियों को भगवन्नाम-सुधा पिलाते हुए अपने प्यारे की दर्शन-लालसा से प्रभु प्रेम में उन्मत्त हुए आगे बढ़ रहे थे। एक दिन भिक्षा करने के अनन्तर मुख-शुद्धि के निमित्त प्रभु ने गोविन्दघोष की ओर हाथ बढ़ाया। घोष महाशय जानते थे कि प्रभु भिक्षा के अनन्तर मुख-शुद्धि के निमित्त कुछ अवश्य खाते हैं, इसलिये वे गाँव से एक हरीत की हरै मांग लाये थे। उन्होंने हरीत की का एक टुकड़ा प्रभु के हाथ पर रख दिया, प्रभु उसे खा गये। दूसरे दिन फिर प्रभु ने भिक्षा के अनन्तर हाथ बढ़ाया। घोष महोदय ने दूसरे दिन की बची हुई आधी हरीत की अपने वस्त्र के छोर में बांध रखी थी, प्रभु के हाथ बढ़ाते ही उन्हों ने जल्दी से उसे वस्त्र में से खोलकर उन के हाथ पर रख दी। हरीत की के टुकड़े को देखकर प्रभु हाथ को ज्यों- का-त्यों ही किये रहे। उन्हों ने उसे मुंह में नहीं डाला। थोड़ी देर सोचकर वे कहने लगे- 'गोविन्द! यह हरीत की तुम ने कहाँ पायी ?' अत्यन्त ही नम्रता के साथ घोष महाशय ने कहा- प्रभो! कल की शेष बची हुई हरीत की हम ने बांध रखी थी, वही यह है।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उत्तम वंश में उत्पन्न हो अपने शरीर को घुमाकर दूसरों के सन्ताप दूर करने वाले पुरुष को मैं पंखे के समान समझता हूँ पंखा भी अपने को घुमाकर औरों का ताप हरता और अच्छे बांस का बनता है। सु. र. भां. 47।18