श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी166. श्री कृष्णान्वेषण
महाप्रभु एक दिन समुद्र की ओर स्नान करने के निमित्त जा रहे थे। दूर से ही समुद्र तट की शोभा देखकर वे मुग्ध हो गये। वे खड़े होकर उस अद्भुत छटा को निहारने लगे। अनन्त जलराशि से पूर्ण सरितापति सागर अपने नीलरंग के जल से अठखेलियाँ करता हुआ कुछ गम्भीर-सा शब्द कर रहा है। समुद्र के किनारे पर खजूर, ताड, नारियल और अन्य विविध प्रकार के ऊँचे-ऊँचे वृक्ष अपने लम्बे-लम्बे पल्लवरूपी हाथों से पथिकों को अपनी ओर बुला-से रहे हैं। वृक्षों के अंगों का जोरों से आलिंगन किये हुए उनकी प्राणप्यारी लताएँ धीरे-धीरे अपने कोमल करों को हिला-हिलाकर संकेत से उन्हें कुछ समझा रही हैं। नीचे एक प्रकार की नीली-नीली घास अपने हरे-पीले-लाल तथा भाँति-भाँति के रंग वाले पुष्पों से उस वन्यस्थली की शोभा को और भी अधिक बढ़ाये हुए हैं। मानो श्रीकृष्ण की गोपियों के साथ होने वाली रासक्रीडा के निमित्त नीले रंग के विविध चित्रों से चित्रित कालीन बिछ रही हो। महाप्रभु उस मनमोहिनी दिव्य छटा को देखकर आत्मविस्मृत से बन गये वे अपने को प्रत्यक्ष वृन्दावन में ही खड़ा हुआ समझने लगे। समुद्र का नीला जल उन्हें यमुना जल ही दिखायी देने लगा। उस क्रीडा स्थली में सखियों के साथ श्रीकृष्ण को क्रीड़ा करते देखकर उन्हें रास में भगवान के अन्तर्धान होने की लीला स्मरण हो उठी। बस, फिर क्या था, लगे वक्षों से श्रीकृष्ण का पता पूछने। वे अपने को गोपी समझकर वृक्षों के समीप जाकर बडे ही करुणस्वर में उन्हें सम्बोधन करके पूछने लगे – इतना कहकर फिर आप-ही-आप कहने लगे– ‘अरी सखियो ! ये पुरुष-जाति के वृक्ष तो उस सांवले के संगी-साथी हैं। पुरुष जाति तो निर्दयी होती है। ये परायी पीर को क्या जाने। चलो, लताओं से पूछें। स्त्री-जाति होने उनका चित्त दयामय और कोमल होता है, वे हमें अवश्य ही प्यारे का पता बतावेंगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ समुद्र तट के सुन्दर उपवन को देखकर प्रभु को बार-बार वृन्दावन की निभृत निकुंज याद आने लगी। उसी अनुपम अरण्य के स्मरणमात्र से ही प्रभु प्रेमविवश हो गये। उन भक्तिरसिक श्रीगौरांग की चंचल रसना निरन्तर ‘कृष्ण-कृष्ण’ इन नामों की आवृत्ति करने लगी। ऐसे वे श्री गौरांग फिर कभी हमारे दृष्टिगोचर होंगे क्या ? स्त. मा. 1 चैतन्याष्टक 6