श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी139. रूप की विदाई और प्रभु का काशी-आगमन
यः प्रागेव प्रियगुणगणैर्गाढबद्धोअपि मुक्तो प्रयाग में अपने भाई अनूप के सहित श्रीरूप दस दिनों तक प्रभु के चरण-कमलों के समीप रहे। ये विद्वान थे, भावुक थे, मेधावी थे, आस्तिक थे और थे प्रेमावतार चैतन्यदेव के परम कृपापात्र। फिर भला, इनका कल्याण होने में सन्देह ही क्या था। ये तो पहले से ही कल्याणस्वरूप थे, एक बार जिनके ऊपर गुरुचरणों की कृपा हो चुकी हो, वह फिर इस नश्वर जगत के क्षणिक और अनित्य भोगों में सुखानुभव कर ही कैसे सकता है? हंस हो जाने पर फिर वह कौए के भोजन का स्पर्श क्यों करेगा? गुरु कृपा से क्या नहीं हो सकता? यदि सदगुरु की एक बार भी कृपा हो जाये तो फिर चाहे वह पुरुष कितना भी बड़ा पापी क्यों न हो उसका संसार-बन्धन बात-की-बात में छिन्न-भिन्न हो जायेगा और वह बन्धन मुक्त होकर गुरु की परम कृपा का अधिकारी बन जायेगा। सदगुरु ही ईश्वर हैं, ब्रह्म के साकार स्वरूप का ही नाम गुरु है। हाड़-मांस का पुतला गुरु हो ही नहीं सकता। सर्वशक्तिमान का पद अल्पज्ञ जीव को प्राप्त हो ही कैसे सकता है? श्री रूप की दृष्टि में चैतन्यदेव हाड़-मांस के शरीरधारी जीव नहीं थे। वे तो उनके लिये प्रेम के साकार स्वरूप थे, सविशेष ब्रह्म थे। उन्होंने महाप्रभु को अवतारी सिद्ध करने की चेष्टा करते कि श्रीचैतन्य अवतार या अवतारी हैं। लोग कुछ भी समझें, उनके लिये तो श्री चैतन्य ही श्रीकृष्ण हैं। वास्तव में यह बात सत्य ही है। जहाँ भेदबुद्धि है वहीं इस बात का आग्रह किया जाता है कि ये ऐसे नहीं ऐसे हैं। श्री रूप की दृष्टि में भेद-भाव नहीं था तभी तो वे 'भक्तिरसामृतसिन्धु' के मंगलाचरण में लिखते हैं- हृदि यस्य प्रेरणया प्रवर्तितोऽहं वराकरूपोऽपि। इन दस दिनों में ही प्रयाग में रहकर मेधावी श्रीरूप ने प्रभु से भक्ति के अत्यन्त गूढ़ रहस्य को समझ लिया और उसी का आपने अपने अनेकों ग्रन्थों में वर्णन किया है। महाप्रभु इनके हृदय की सच्ची लगन को जानते थे, इसलिये इन्हें वैराग्य का उपदेश करते हुए कहने लगे- 'रूप! देखो, यह संसार विषय भोगों में कैसा पागल बना हुआ है। पद, प्रतिष्ठा, पैसा, पुत्र, परिवार तथा प्रेम-पदार्थों की प्राप्ति की चिन्ता में ही यह अमूल्य जीवन बरबाद हो जाता है। कामिनी, कांचन और कीर्ति इन तीन रस्सियों ने ही जीव को कसकर बांध रखा है। इनके कारण यह तनिक भी इधर-उधर हिल-डुल नहीं सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जो पहले ही प्रभु के प्रिय गुण समूहों के द्वारा बँधकर भी घर-द्वार, कुटुम्ब-परिवार के बन्धनों से मुक्त हो चुके थे, उन रूप और उनके अनुज अनूप के ऊपर स्वयं रसतुल्य अमूर्त होने पर भी उन श्री गौरांग ने श्रेष्ठमूर्ति धारण करके प्रयाग क्षेत्र में प्रेमालाप और दृढ़तर आलिंगनों द्वारा परम अनुग्रह किया। चैतन्यचन्द्रो. ना. 9।42
- ↑ जिन्होंने सामान्य कंगालरूप मुझ रूप के हृदय में भक्तिग्रंथ लिखने की प्रेरणा की उन्हीं श्रीहरिरूप श्रीचैतन्य-चरण-कमलों की मैं वन्दना करता हूँ। भ. र. सिन्धु 1।2