श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी155. महाप्रभु की अलौकिक क्षमा
क्षमा बलमशक्तानां शक्तानां भूषणं क्षमा। महापुरुषों के पास भिन्न भिन्न प्रकृति के भक्त होते हैं। बहुत से तो ऐसे होते हैं, जो उनके गुण अवगुण को समझते ही नहीं, उनके लिये वे जो भी कुछ करते हैं सब अच्छा ही करते हैं। महापुरुषों के कार्यों में उन्हें अनौचित्य दीखता ही नहीं। बहुत से ऐसे होते हैं, जो गुण दोषो का विवेचन तो कर लेते हैं, किन्तु महापुरुषों के दोषों के ऊपर ध्यान नहीं देते, वे अवगुणो की उपेक्षा करके गुणों को ही ग्रहण करते हैं। कुछ ऐसे होते हैं, हृदय से उनके गुणों के प्रति तो श्रद्धा के भाव रखते हैं, किन्तु जहाँ उन्हें कोई मर्यादा के विरुद्ध कार्य करते देखते हैं वहाँ उनकी आलोचना भी करते हैं और उन्हें उस दोष से पृथक रखने के लिये प्रयत्नशील भी होते हैं। कुछ ऐसे भी भक्त या कुभक्त होते हैं जो महापुरुषों के प्रभाव को देखकर मन ही मन डाह करते हैं और उनके कामों में सदा छिद्रान्वेषण ही करते रहते हैं। उपर्युक्त तीन प्रकार के भक्त तो महापुरुषों से यथाशक्ति लाभ उठाते हैं, किन्तु ये चौथे निन्दक महाशय अपना नाश करके महापुरुष का कल्याण करते हैं, अपनी नीचता के द्वारा महापुरुषों की सदवृत्तियों को उभाड़कर उन्हें लोगों के सम्मुख रखते हैं। उनके बराबर परोपकारी संसार में कौन हो सकता है, जो अपना सर्वस्व नाश करके लोक कल्याण के निमित्त महापुरुषों के द्वारा क्षमा और सहनशीलता का आदर्श उपस्थित कराते हैं। महाप्रभु के दरबार में पहले और दूसरे प्रकार के भक्तो की संख्या ही अधिक थी। प्रायः उनके सभी भक्त उन्हें ‘सचल जगन्नाथ’ ‘संन्यास वेषधारी पुरुषोत्तम’ मानकर भगवदबुद्धि से उनकी सेवा पूजा किया करते थे, किन्तु आलोचक और निन्दकों का एकदम अभाव ही हो, सो बात नहीं थी। उनके बहुत से आलोचक भी थे, किन्तु प्रभु उनकी बातें ही नहीं सुनते थे। कोई भूल में आकर उनसे कह भी देता, तो वे उसे उस बात के सुनाने से एकदम रोक देते थे। यह तो बाहर के लोगों की बात रही, उनके अंतरंग भक्तों तथा साथियों में भी ऐसे थे, जो खरी कहने के लिये प्रभु के सामने भी नहीं चूकते थे, किंतु उनका भाव शुद्ध था। एक त्यागाभिमानी रामचन्द्रपुरी नाम के उनके घोर निन्दक संन्यासी भी थे, किन्तु प्रभु की अलौकिक क्षमा के सामने उन्हें अन्त में पुरी को ही छोड़कर जाना पड़ा। पहले दामोदर पण्डित की आलोचना की एक घटना सुनिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ निर्बल पुरुषों का बल क्षमा ही है और वही क्षमा बलवानों का परम भूषण है। क्षमा के द्वारा संसार वश में किया जा सकता है। संसार में ऐसा कौन-सा काम है, जो क्षमा के द्वारा सिद्ध न हो सकता हो? सु. र. भां. 87/3