श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी149. रघुनाथदास जी का उत्कट वैराग्य
वैराग्य ही ही भूषण जिनका ऐसे श्री रघुनाथदास जी पुरी में आकर प्रभु के चरणों के समीप रहने लगे। पाँच दिनों तक तो वे गोविन्द से महाप्रसाद लेकर पाते रहे। पीछे उन्होंने सोचा- 'महाप्रसाद को इस प्रकार रोज यहीं से खाना ठीक नहीं है। यहाँ प्रभु के समीप और भी तो विरक्त वैष्णव हैं, वे सभी अपनी-अपनी भिक्षा लाते हैं, मुझे भी अपनी भिक्षा स्वयं लानी चाहिये। विरागी होकर यदि भिक्षा मांगने में संकोच हुआ, तो मेरे ऐसे वैराग्य को धिक्कार है। 'यह सोचकर उन्होंने प्रभु के यहाँ से महाप्रसाद लेना बंद कर दिया।
रात्रि में जगन्नाथ जी की पुष्पांजलि के अनन्तर भगवान को शयन कराकर सेवक गण अपने-अपने घरों को चले जाते हैं। उस समय सिंहद्वार पर बहुत-से अन्नार्थी दरिद्र भिक्षुक अपना पल्ला फैलाये खड़े रहते है। सेवक मन्दिर से निकलकर कुछ थोड़ा-बहुत बचा हुआ प्रसाद उन्हें बाँट देते हैं। बहुत-से यात्री भी प्रसाद मोल मांगकर थोड़ा-थोड़ा उन भिक्षुकों को बंटवा देते हैं, कोई पैसा-धेला दे भी देता है। उस समय का वहाँ का दृश्य बड़ा ही करुणा जनक होता है। सभी भिक्षुक चाहते हैं कि सबसे पहले हमें ही प्रसाद मिल जाय, क्योंकि प्रसाद चुक जाने पर जिन्हें नहीं मिलता, उनके लिये बांटने वाले फिर थोड़े ही लाते हैं, इसीलिये बांटने वाले को चारों ओर से घेर लेते हैं। जिसे मिल गया उसे मिल गया, जो रह गया सो रह गया, किन्तु वहाँ थोड़ा-बहुत प्राय: सभी को मिल जाता है। रघुनाथदासजी भी उन्हीं भिक्षुकों में अपनी फटी गुदड़ी ओढ़कर खड़े हो जात थे। बिना मांगे किसी ने सबों के साथ में दे दिया तो ले लिया, किसी दिन चुक गया तो वैसे ही चले आये, ये बांटने वाले पर अन्य भिक्षुकों की भाँति टूटे नहीं पड़ते थे।
महाप्रभु ने जब दो-एक दिन रघुनाथदास जी को महाप्रसाद पाते नहीं देखा, तब उन्होंने गोविन्द से पूछा- 'गोविन्द! रघु प्रसाद नहीं पता? वह खाता कहाँ से है? गोविन्द ने कहा- 'प्रभो! वे अब सिंहद्वार पर अन्य भिक्षुकों के साथ खड़े होकर भिक्षा मांगते है।' प्रभु इस बात को सुनकर बड़े ही सन्तुष्ट हुए और हार्दिक प्रसन्नता प्रकट करते हुए गोविन्द से कहने लगे- 'गोविन्द! सचमुच रघु रत्न है, उसे सच्चा वैराग्य है। वैराग्य होने पर मान, प्रतिष्ठा, इन्द्रियस्वाद और लोकलज्जा की परवा ही नहीं रहती। त्यागी होकर जो परमुखापेक्षी बना रहता है, वह तो कूकर के समान है। त्यागी को अपनी वृत्ति सदा स्वतन्त्र रखनी चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जो त्रिवर्ग के क्षेत्र रूप गृह से प्रथम विरक्त होकर पुन: उन त्रिवर्गों का ही सेवन करता है वह निर्लज्ज मानो वमन किये हुए अन्न को फिर से खाता है।
यदि ज्ञान द्वारा कामनाओं को नष्ट करके अपने को परब्रह्मरूप जान लिया तो लम्पट पुरुष फिर किस कारण और किस इच्छा से इन नाशवान देह को माल खिला-खिलाकर मोटा बनाता है। श्रीमद्भा. 7/15/36/40