श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी149. रघुनाथदास जी का उत्कट वैराग्य
इतने त्याग से रघुनाथ जी को कुछ-कुछ शान्ति का अनुभव होने लगा। हजारों आदमी जिनके आश्रय से खाते थे, आज से पंद्रह दिन पूर्व जो हजारों आदमियों के स्वामी बने हुए थे, सेवक जिनके समीप सदा हाथों की अंजलियाँ बांधे खड़े रहते थे, वे ही मजूमदार के प्यारे पुत्र रघु एक मुट्ठी सिद्ध अन्न के लिये घंटों सिंह द्वार पर खड़े हुए बांटने वाले की प्रतीक्षा करते रहते हैं और कभी-कभी तो वैसे-के-वैसे ही चले जाते हैं। अपने आसन पर जाकर जल पीकर ही बिना कुछ खाये सो जाते है, कभी चावल न मिलने पर कोई दयालु पुरुष पैसे-धेले का चना दिलवा देता है उन्हें ही चबाकर पड़ रहते हैं। बढ़िया-बढ़िया व्यंजनों के थालों को आज से पंद्रह दिन पहले सेवक इस भय से डरते-डरते लाते थे कि कहीं किसी में अधिक नमक तो न पड़ गया हो, कोई पदार्थ अधिक गीला तो न रह गया हो। वे ही रघु आज सूखे चनों को जल के साथ गले के नीचे उतारते हैं। वाह रे वैराग्य! धन्य है तेरी शक्ति को, जो महान विलासी को भी परम तितिक्षावान बना देती है। रघुनाथदास जी ने एक दिन विनम्र भाव से स्वरूप गोस्वामी से निवेदन किया- 'प्रभु ने मुझे घर-बार छुड़ाकर किस निमित्त यहाँ बुलाया है, इसे जानने की मेरी बड़ी अभिलाषा है। मुझे क्या करना चाहिये। मैं अपना कर्तव्य जानना चाहता हूं'- रघुनाथ जी बड़े ही संकोची थे, वे प्रभु के सामने कभी भी अपने मुँह से कोई बात नहीं निकालते थे। उनकी ओर कभी आँखें उठाकर देखते नहीं थे, जो कुछ कहलाना होता, उसे या तो स्वरूप गोस्वामी द्वारा कहलाते या गोविन्द के द्वारा। स्वयं वे सम्मुख होकर कोई बात नहीं पूछते थे। |