श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी168. लोकातीत दिव्योन्माद
महाप्रभु की दिव्योन्माद की अवस्था का वर्णन करना कठिन तो है ही, साथ ही बड़ा ही हृदयविदारक है। हम वज्र-जैसे हृदय रखने वालों की बात छोड़ दीजिये, किन्तु जो सहृदय हैं, भावुक है, सरस हैं, परपीडानुभवी हैं, मधुर रति के उपासक हैं, कोमल हृदय के हैं, जिनका हृदय परपीड़ाश्रवण से ही भर आता है, जिनका अन्त:करण अत्यन्त लुजलुजा- शीघ्र ही द्रवित हो जाने वाला है, वे तो इन प्रकरणों को पढ़ भी नहीं सकते। सचमुच इन अपठनीय अध्यायों का लिखना हमारे ही भाग्य में बदा था। क्या करें, विवश हैं हमारे हाथ में बलपूर्वक यह लौह की लेखनी दे दी गयी है। इतना ग्रन्थ लिखने पर भी यह डाकिनी अभी ज्यों-की त्यों ही बनी है, घिसती भी नहीं। न जाने किस यंत्रालय में यह खास तौर से हमारे ही लिये बनायी गयी थी। हाय ! जिसके मुखकलम के संघर्षण की करुण कहानी इसे लिखनी पड़ेगी। जिस श्रीमुख की शोभा को स्मरण करके लेखनी अपने लौहपने को भूल जाती थी, वही अब अपने काले मुंह से उस रक्त रंजित मुख का वर्णन करेगी। इस लेखनी का मुख ही काला नहीं है। किन्तु इसके पेट में भी काली स्याही भर रही है और स्वयं भी काली ही है। इसे मोह कहाँ, ममता कैसी, रुकना तो सीखी ही नहीं। लेखनी ! तेरे इस क्रूर कर्म को बार-बार धिक्कार है। महाप्रभु की विरह-वेदना अब अधिकाधिक बढ़ती ही जाती थी। सदा राधाभाव में स्थित होकर आप प्रलाप करते रहते थे। कृष्ण को कहाँ पाऊँ, श्याम कहाँ मिलेंगे, यही उनकी टेक थी। यही उनका अहर्निश का व्यापार था। एक दिन राधाभाव में ही आपको श्रीकृष्ण के मथुरागमन की स्फूर्ति हो आयी, आप उसी समय बड़े ही करुणस्वर में राधा जी के समान इस श्लोक को रोते-रोते गाने लगे– इस प्रकार विधाता को बार-बार धिक्कार देते हुए प्रभु उसी भावावेश में श्रीमद्भागवत के श्लोकों को पढ़ने लगे। इस प्रकार आधी रात तक आप अश्रु बहाते हुए गोपियों के विरहसम्बन्धी श्लोकों की ही व्याख्या करते रहे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जो अपने असंख्य प्राणों के समान प्रिय है, उस व्रज के विरह से विकल हो उन्मादवश जो निरन्तर अधिक प्रलाप कर रहे हैं तथा जो अपने चन्द्रमा के समान सुन्दर श्रीमुख को दीवार में घिसने के कारण बहे हुए रक्त से रंजित कर रहे हैं, ऐसे श्रीगौरांगदेव हमारे हृदय में उदित होकर हमें मदमत्त बना रहे हैं। चैत. स्त. कल्पवृक्ष
- ↑ प्यारी सखि ! वह नन्दकुल का प्रकाशक चन्द्र कहाँ है ? प्यारी वह मयूर की पुच्छों का मुकुट पहनने वाला वनमाली कहाँ चला गया ? अहा ! वह मुरली की मन्द-मन्द मनोहर ध्वनि सुनाने वाला अब कहाँ गया ? वह इन्द्रनील मणि के समान कमनीय कान्तिमान प्यारा कहाँ है ? रासमण्डल में थिरक-थिरककर नृत्य करने वाला वह नटराज कहाँ चला गया ? सखि ! हमारे जीवन की एकमात्र अमोघ ओषधिस्वरूप वह छलिया कहाँ है ? हमारे प्राणों से भी प्यारा वह सुहृद किस देश में चला गया ? हमारी अमूल्य निधि को कौन लूट ले गया ? हा विधाता ! तुझे बार-बार धिक्कार है।