श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी92. श्रीसाक्षिगोपाल
पद्भ्यां चलन् य: प्रतिमास्वरूपो। प्रात:काल उठकर प्रभु नित्यकर्म से निवृत हए और भगवान श्रीगोपीनाथ जी की मंगल-आरती के दर्शन करके उन्होंने भक्तों के सहित आगे के लिये प्रस्थान किया। रास्ते में उन्हें वैतरणी नदी मिली। उसमें स्नान करके प्रभु राजपुर में पहुँचे। वहाँ वराह भगवान का स्थान हैं। वराहभगवान के दर्शन करने के अनन्तर याजपुर में होते हुए और शिवलिंग, विरजादर्शन तथा ब्रह्मकुण्ड में स्नान करते हुए नाभिगया में पहुँचे। वहाँ दशाश्वमेध घाट पर स्नान करके कण्टक नगर में पहुँचकर भगवान साक्षिगोपाल के दर्शन किये। साक्षिगोपाल जी के मन्दिर में बहुत देर तक कृष्ण-कीर्तन होता रहा। नगर के बहुत-से नर-नारी प्रभु के कीर्तन और नृत्य को देखने के लिये एकत्रित हो गये। प्रभु को नृत्य करते देखकर ग्रामवासी स्त्री-पुरुष भी आनन्द में उन्मत होकर कठपुतलियों की तरह नाचने-कूदने लगे। बहुत देर तक संकीर्तन-आनन्द होता रहा। तब प्रभु ने अपने भक्तों के सहित साक्षिगोपाल के मन्दिर में विश्राम किया। रात्रि में भक्तों के साथ कथोपकथन करते-करते प्रभु ने नित्यानन्द जी से पूछा- ‘श्रीपाद ! आपने जो प्राय: भारत वर्ष के सभी मुख्य-मुख्य तीर्थो में भ्रमण किया है। आपसे तो सम्भवतया कोई प्रसिद्ध तीर्थ न बचा हो, जहाँ जाकर आपने दर्शन-स्नानादि न किया हो?’ कुछ धीरे से नित्यानन्दन जी ने कहा- ‘हाँ, प्रभो ! बारह वर्ष मेरे इसी प्रकार तीर्थो के भ्रमण में व्यतीत हुए।’ प्रभु ने पूछा-‘यहाँ भी पहले आये थे?’ नित्यानन्दन जी ने उतर दिया- ‘पुरी से लौटते हुए मैंने साक्षिगोपाल भगवान के दर्शन किये थे।’ प्रभु ने कहा- ‘तीर्थ में जाकर उस तीर्थ का माहात्म्य अवश्य सुनना चाहिये। बिना महात्म्य सुने तीर्थ का फल आधा ही होता है। आप मुझे साक्षिगोपाल का माहात्म्य सुनाइये। इनका नाम साक्षिगोपाल क्यों पड़ा? इन्होंने किसकी साक्षी दी थी?’ प्रभु की ऐसी आज्ञा सुनकर धीरे-धीरे नित्यानन्द जी कहने लगे- ‘मैंने किसी पुराणों में से तो साक्षिगोपाल भगवान की कथा नहीं सुनी, क्योंकि यह बहुत प्राचीन तीर्थ नहीं है। अभी थोड़े ही दिनों में साक्षिगोपाल भगवान विद्यानगर से यहाँ पधारे हैं। लोगों के मुख से मैने जिस प्रकार साक्षिगोपाल की कथा सुनी है, उसे सुनाता हूँ।’ तैलंग-देश में गोदावरी नदी के तट पर ‘विद्यानगर’ नाम की कोट-देश की प्राचीन राजधानी थी। वह नगर बड़ा ही समृद्धशाली तथा समुद्र के समीप होने के कारण वाणिज्य-व्यापार का केन्द्र था। उसी नगर में एक समृद्धशाली कुलीन ब्राह्मण रहता था। ब्राह्मण भगवत-भक्त था। वह गौ, ब्राह्मण तथा देवप्रतिमाओं में भक्ति रखता था। घर में खाने-पीने की कमी नहीं थी। लड़के बड़े हो गये थे, इसलिये घर के सम्पूर्ण कामों को वे ही करते थे। यह वृद्ध ब्राह्मण तो माला लेकर भजन किया करता था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जो ब्रह्मण्यदेव प्रतिमास्वरूप से पैरों चलकर सैकड़ों दिन में जाने योग्य होने पर भी ब्राह्मण के उपर कृपा करके इस (विद्या नगर नामक) देश में पधारे, ऐसे अद्भुत साक्षी का काम करने वाले उन साक्षिगोपाल भगवान के चरणों में हम बार-बार नमस्कार करते हैं। चै. च. म. ली. 5/1