श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी2. इष्ट-प्रार्थना
कदा वृन्दारण्ये विमलयमुनातीरपुलिने प्यारे! तुमसे किस मुख से कहूँ, कि मुझे ऐसा जीवन प्रदान करो। चिरकाल से महात्माओं के मुख से सुनता चला आ रहा हूँ, कि तुम निष्किंचनों के प्रिय हो, जिन्होंने आभ्यन्तर और ब्राह्य दोनों प्रकार के परिग्रह का परित्याग कर दिया है, जिनके तुम ही एकमात्र आश्रय हो, जो तुमको ही अपना सर्वस्व समझते हों, उन्हीं एकनिष्ठ भक्तों के हृदय में आकर तुम विराजमान होते हो, उन्हीं के जीवन को असली जीवन बना देते हो। उन्हीं के तुम प्यारे हो और वे तुम्हें प्यारे हैं। प्यारे! इस पामर प्राणी से तुम कैसे प्यार कर सकोगे? वंचना नहीं, अत्युक्ति नहीं, नाथ! यह कैसे कहूँ कि बनावट नहीं, किन्तु तुम तो अन्तर्यामी हो, तुमसे कोई बात छिपी थोडे़ ही है, इस अधम का तो तुम्हारे प्रति तनिक भी आकर्षण नहीं। रोज सुनता हूँ अमुक के ऊपर तुमने कृपा की, अमुक को तुमने दर्शन दिये, इन प्रसंगों को सुनकर मुझे अधीर होना चाहिये, किन्तु कृपालो! अधीर होना तो अलग रहा, मुझे तो विश्वास तक नहीं होता, कि ऐसा हुआ भी होगा या नहीं। बहुत चाहता हूँ, तुम्हारा स्मरण करूँ, मन में तुम्हें छोड़कर दूसरा विचार ही न उठे, कान तुम्हारे गुण-कीर्तनों के अतिरिक्त दूसरी सांसारिक बातें सुनें ही नहीं। जिह्वा निरन्तर तुम्हारे ही नामामृत का पान करती रहे। नेत्रों के सम्मुख तुम्हारी वही ललित त्रिभंगीयुक्त बाँकी चितवन नृत्य करती रहे। पैरों से तुम्हारी प्रदक्षिणा करूँ। करों से तुम्हारी पूजा-अर्चा करता रहूँ और हृदय में तुम्हारी मनोहर मूर्ति को धारण किये रहूँ, किन्तु नटनागर! ऐसा एक क्षण भी तो होने नहीं पाता। मन न जाने क्या ऊल-तमूल सोचता रहता है जब कभी स्मरण आता है, तो मन को बार-बार धिक्कारता हूँ, ‘अरे नीच! न जाने तू क्या व्यर्थ की बातें सोचता रहता है! अरे, उन मनमोहन की छवि का चिन्तन कर जिसके बाद फिर कोई चिन्तनीय चीज ही शेष नहीं रह जाती, किन्तु नाथ! वह मेरी सीख को सुनता ही नहीं। न जाने कितने दिन से यह इन घटपटादिकों को सोचता आ रहा है। विषयों के चिन्तन से यह ऐसा विषयमय बन गया है, कि तुम्हारी ओर आते ही काँपने लगता है और आगे बढ़ना तो अलग रहा, चार कदम और पीछे हट जाता है। कैसे करूँ नाथ! अनेक उपाय किये, अपने करने योग्य साधन जहाँ तक कर सका सब किये, किन्तु इस पर कुछ भी असर नहीं हुआ। हो भी तो कैसे? इसकी डोरी तो तुम्हारे हाथ में है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यमुना जी का सुन्दर पुलिन हो, वृन्दावन के सुन्दर वनों में वंशी बजाते हुए हलधर और सुदामा आदि प्यारे गोपों के साथ आप विचरण कर रहे हों। हे मेरे प्राणनाथ! हे मेरे मदनमोहन! ओ मेरे चितचोर! मेरे ऐसे दिन कब आवेंगे, जब मैं तुम्हारी इस प्रकार की छवि को हृदय में धारण किये पागलों की भाँति कृष्ण-कृष्ण चिल्लाता हुआ अपने जीवन के सम्पूर्ण समय को निमिषको नाई बिता दूँगा।