श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी111. नीलाचल में प्रभु का प्रत्यागमन
उद्दामदामनकदामगणाभिराम बड़ौदा से चलकर महाप्रभु अहमदाबाद आये, वहाँ पर दो बंगाली वैष्णवों से प्रभु की भेंट हुई। उनसे नवद्वीप का समाचार पाकर प्रभु की पूर्वस्मृति पुन: जागृत हो उठी। उनसे कुशलक्षेम पूछकर प्रभु ने द्वारका के लिये प्रस्थान किया। द्वारका जी के मन्दिर में जाकर प्रभु आनन्द में मग्न होकर नृत्य कीर्तन करने लगे। वहाँ से समुद्र किनारे होते हुए सोमनाथ शिव जी के दर्शनों के लिये प्रभासक्षेत्र में आये, जहाँ पर प्राची सरस्वती हैं। इस प्रकार समस्त तीर्थों में भ्रमण करके अब प्रभु की इच्छा पुन: नीलाचल लौटने की हुई। इसलिये गोदावरी नदी के किनारे किनारे होते हुए पुन: विद्यानगर में पहुँच गये। महाप्रभु के आने का समाचार पाते ही राय रामानन्द जी उसी समय प्रभु के दर्शनों के निमित्त दौड़े आये। प्रभु ने उनका गाढ़ालिंगन किया। राय ने विनीतभाव से कहा- ‘प्रभो ! इस अधम को आप भूले नहीं हैं और इसकी स्मृति अभी तक आपके हृदय में बनी हुई है, इस बात को स्मरण करके मैं प्रसन्नता के कारण अपने अंगों में फूला नहीं समाता। आज अपने पुन: दर्शन देकर मुझे अपनी परम कृपा का यथार्थ में ही पात्र बना लिया।’ प्रभु ने कहा- ‘राय महाशय, यथार्थ में तो आपके ही दर्शन से मेरे सब तीर्थ सफल हो गये थे। फिर भी मैं और तीर्थों में वैसे ही चला गया। जितना सुख मुझे यहाँ आपके साथ मिला था, उतना अन्यत्र कहीं भी नहीं मिला। अब फिर मैं उस आनन्द को प्राप्त करने आपके पास आया हूँ। कहावत है- ‘लाभाल्लोभ: प्रजायते।’ अर्थात जितना भी लाभ होता है, उतना ही अधिक लोभ बढ़ता जाता है। इसलिये अब तो यही सोचकर आया हूँ कि आपके ही साथ निरन्तर वास करके उस आनन्द रस का आस्वादन करता रहूँ।’ रामानन्द जी ने अत्यन्त ही संकोच के साथ कहा- ‘प्रभो! मैंने आपकी आज्ञा शिरोधार्य करके महाराज को राज काज से अवकाश देने की प्रार्थना की थी। उन्होंने मेरी प्रार्थना को स्वीकार करके बुलाया है। अब तो आपके चरणों में रहने का सम्भवतया सौभाग्य प्राप्त हो सके।’ प्रभु ने कहा- ‘इसीलिये तो मैं ही हूँ, अब आपको साथ लेकर ही पुरी चलूँगा।’ राय महाशय ने कुछ विवशता सी दिखाते हुए कहा- ‘प्रभो! मेरे साथ चलने में आपको कष्ट होगा। अभी मुझे बहुत से राज काज करने शेष हैं, फिर मेरे साथ हाथी घोड़े, नौकर, चाकर बहुतसे चलेंगे। उन सबके साथ आपको कष्ट होगा। इसलिये आप पहले अकेले ही पुरी पधारें, फिर मैं भी पीछे से आ जाऊँगा।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीकृष्ण कीर्तन में उन्मत्त हुए भक्तों के समूह से जो शोभित है और निरन्तर जिसके श्रीमुख से राम राम ऐसा शब्द उच्चारण होता रहता है, जो करुणाक का धाम तथा सुवर्ण के समान निर्मल एवं गौर कान्तिवाला है, उस चैतन्य नामक परम धाम का हम आश्रय लेते हैं।