श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी30. दिग्विजयी का वैराग्य
भोगे रोगभयं कुले च्तुतिभयं वित्ते नृपालाद्भयं जिसकी जिह्वा ने मिश्री का रसास्वादन नहीं किया है, वही लौटा अथवा सीरा में सुख का अनुभव करेगा। जिस स्थान में गुड़ से चीनी या शक्कर बनायी जाती है, उसके बाहर एक बड़ा-सा कुण्ड होता है, उसमें गुड़ का सम्पूर्ण काला-काला मैल छन-छनकर आता है। दूकानदार उस मैल को कारखाने में से सस्ते दामों में खरीद लाते हैं और उसे तंबाकू में कूटकर बेचते हैं। दूकानदार सीरे को काठ के बड़े-बड़े़ पीपों में भरकार और गाड़ी में लादकर ले जाते हैं। काठ के पीपे में छोटे-छोटे छिद्र हो जाते हैं, उनमें से सीरा रास्ते में टपकता जाता है, हमने अपनी आँखों से देखा है, कि गाँव के ग्वारिया उन बूँदों को उँगलियों से उठाकर चाटते हैं और मिठास की खुशी के कारण नाचने लगते हैं, जहाँ कहीं बड़ी-बड़ी दस-पाँच बूँदें मिल जाती हैं, वहाँ वे प्रसन्नता के कारण उछलने लगते हैं और खुशी में अपने को परम सुखी समझने लगते हैं। यदि उन्हें कहीं मिश्री खाने के लिये मिल जाय तो फिर वे उस बदबूदार सीरे की ओर आँख उठाकर भी न देखेंगे, क्योंकि असली मिठास तो मिश्री में ही है। सीरे में तो उसका मैल है। मिठास के संसर्ग के कारण ही मैल में भी मिठास-सा प्रतीत होता है। अज्ञानी बालक उसे ही मिठास समझकर खुशी से कूदने लगते हैं। इसी प्रकार असली आनन्द तो वैराग्य में ही है, विषयों में जो आनन्द प्रतीत होता है, वह तो वैराग्य का मैलमात्र ही है, जिसने वैराग्य का रसास्वादन कर लिया, वह इन क्षणभंगुर अनित्य संसारी विषयों में क्यों राग करेगा? वैराग्य का पिता पश्चात्ताप है, पश्चात्ताप के बिना वैराग्य हो ही नहीं सकता। जब किसी महात्मा के संसर्ग में हृदय में अपने पुराने कृत्यों पर पश्चात्ताप होगा तभी वैराग्य की उत्पत्ति होगी। वैराग्य का पुत्र त्याग है, त्याग वैराग्य से ही उत्पन्न होता है, बिना वैराग्य के त्याग ठहर ही नहीं सकता। त्याग के सुख नाम का पुत्र है और शान्ति नाम की एक पुत्री। ‘त्यागान्नास्ति परं सुखम्’ त्याग से बढ़कर परम सुख कोई है ही नहीं। त्याग के बिना सुख हो ही नहीं सकता। भगवान भी कहते हैं- ‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ त्याग के अनन्तर ही शान्ति की उत्पत्ति होती है। अतः इस पूरे परिवार के आदिपुरुष या पूर्वज जनक पश्चात्ताप ही हैं। पश्चात्ताप के बिना इस परिवार की वंशवृद्धि नहीं हो सकती। इसीलिये तो सत्संग की इतनी महिला वर्णन की गयी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भोग में रोका भय है, कुछ बढ़ने से उसके च्युत होने का भय है, अधिक धन होने में उससे राजभय है, मौन होने में दीनता का भय है, बल में शत्रु का भय है, रूप में वृद्धावस्था का भय है, शास्त्राभ्यास में वाद-विवाद में हार जाने का भय है, गुणों में दुष्टों का भय है, शरीर में उसके नष्ट हो जाने का भय है, संसार के यावत पदार्थ सभी भय से भरे पड़े हैं। बस, एक वैराग्य ही भय से रहित है। वैराग्य में किसी का भी भय नहीं। भर्तृहरि वै. श. 35