श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी94. श्रीजगन्नाथ जी के दर्शन से मूर्छा
नित्यानन्द जी ने अपनी हंसी रोकते हुए कहा- ‘न रखियेगा हम लोगों को साथ, हम साथ रहने को कह ही कब रहे हैं? जब यहाँ तक आये हैं, तो जगन्नाथ जी के दर्शन करने तो चलने देंगे?’ प्रभु ने सिर हिलाते हुए गम्भीर स्वर में कहा- ‘यह नहीं हो सकता। आप लोग मेरे साथ न चलें। यदि आप लोगों को दर्शन करने की इच्छा है, तो या तो मुझसे पीछे जायं या आगे चले जायँ। मेरे साथ नहीं जा सकते। बोलो, आगे जाते हो या पीछे रहते हो?’ कुछ मुसकुराते हुए मुकुन्ददत्त ने कहा- ‘प्रभो ! आप ही आगे चलें, हम तो पीछे ही आये हैं और सब जगही आपके पीछे हो जायँगे।’ बस, इतना ही सुनना था कि महाप्रभु श्रीजगन्नाथ जी के मन्दिर की ओर बड़े ही वेग के साथ दौड़े। मानो किसी अरण्य के मत्त गजेन्द्र ने अपनी उन्मादी अवस्था में किसी ग्राम में प्रवेश किया हो और उसे देखकर मारे भय के ग्राम्य पशु इधर-उधर भागने लगे हों, उसी प्रकार प्रभु को इस उन्मत्तावस्था में मन्दिर की ओर दौड़ते देखकर रास्ते में चलने वाले सभी पथिक इधर-उधर भागने लगे। बहुत-से तो चौंककर दूसरी ओर हट गये। बहुत-से रास्ता छोड़कर एक ओर हट गये और बहुत-से मतिभ्रम हो जाने के कारण पीछे की ही ओर दौड़ने लगे। महाप्रभु किसी की भी कुछ परवा न करते हुए सीधे मन्दिर की ओर दौड़ते गये। मन्दिर के सिंहद्वार में प्रवेश करके आप सीधे जगमोहन में चले गये और एकदम छलाँग मारकर बात-की-बात में ठीक भगवान के सामने पहुँच गये। सुभद्रा और बलराम के सहित श्रीजगन्नाथ जी के दर्शन करते ही प्रभु का उन्माद पराकाष्ठा को भी पार कर गया। वे महान आवेशों में आकर भगवान के श्रीविग्रह का आलिंगन करने के लिये भीतर मन्दिर की ओर दौड़े। इतने में ही मन्दिर के पहरेदारों ने प्रभु को बीच में ही रोक दिया। प्रहरियों के बीच में आ जाने से प्रभु मुर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़े। उन्हें अपने शरीर का कुछ भी होश नहीं था। चेतन शून्य मनुष्य की भाँति वे निर्जीव-से हुए जगमोहन में पड़े थे। हजारों दर्शनार्थी जगन्नाथ जी के दर्शन को भूलकर इनके दर्शन करने लगे। मन्दिर के बहुत-से यात्री तथा कर्मचारीगण प्रभु को चारों ओर से घेरकर खड़े हो गये। प्रभु अपनी उसी अवस्था में बेहोश पड़े रहे। |