श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी170. श्री अद्वैताचार्य जी की पहेली
मातृभक्त श्रीगौरांग उन्मादावस्था में भी अपनी स्नेहमयी जननी को एकदम नहीं भूले थे। जब वे अन्तर्दशा से कभी-कभी बाह्य दशा में आ जाते तो अपने प्रिय भक्तों की और प्रेममयी माता की कुशल-क्षेम पूछते और उनके समाचार जानने के निमित्त जगदानन्द जी को प्रतिवर्ष गौड़ भेजते थे। जगदानन्द जी गौड़ में जाकर सभी भक्तों से मिलते, उनसे प्रभु की सभी बातें कहते, उनकी दशा बताते और सभी का कुशल-क्षेम लेकर लौट आते। शचीमाता के लिये प्रभु प्रतिवर्ष जगन्नाथ जी का प्रसाद भेजते और भाँति-भाँति के आश्वासनों द्वारा माता को प्रेम-सन्देश पठाते। प्रभु के सन्देश को कविराज गोस्वामी के शब्दों में सुनिये– तोमार सेवा छांड़ि आमि करिनूँ संन्यास। अर्थात हे माता ! मैंने तुम्हारी सेवा छोड़कर पागल होकर संन्यास धारण कर लिया है, यह मैंने धर्म के विरुद्ध आचरण किया है, मेरे इस अपराध को तुम चित्त में मत लाना। मैं अब भी तुम्हारे अधीन ही हूँ। निमाई अब भी तुम्हारा पुराना ही पुत्र है। नीलाचल में मैं तुम्हारी ही आज्ञा से रह रहा हूँ और जब तक जीऊँगा तब तक नीलाचल को नहीं छोड़ूँगा। इस प्रकार प्रतिवर्ष प्रेम-सन्देश और प्रसाद भेजते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इस मनुष्यलोक में मनुष्य के शरीर धारण करने का केवल इतना ही प्रयोजन है कि वह भगवान वासुदेव के प्रति भक्ति करे और उनके सुमधुर नामों का सदा अपनी जिह्वा से उच्चारण करता रहे। श्रीमद्भा. 6।3।22