श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी76. भक्तवृन्द और गौरहरि
निवारयाम: समुपेत्य माधवं महाप्रभु का वैराग्य दिनों दिन बढ़ता ही जाता था, उधर विरोधियों के भाव भी महाप्रभु के प्रति अधिकाधिक उत्तेजनापूर्ण होते जाते थे। दुष्ट-प्रकृति के कुछ पुरुष प्रभु के ऊपर प्रहार करने का सुयोग ढूंढ़ने लगे। महाप्रभु ने ये बातें सुनी और उनके हृदय में उन भाइयों के प्रति महान दया आयी। वे सोचने लगे- ‘ये इतने भूले हुए जीव किस प्रकार रास्ते पर आ सकेंगे? इनके उद्धार का उपाय क्या है, ये लोग किस भाँति श्रीहरि की शरण में आ सकेंगे।’ एक दिन महाप्रभु भक्तों के सहित गंगा-स्नान के निमित्त जा रहे थे। रास्ते में प्रभु ने दो-चार विरोधियों को अपने ऊपर ताने कसते हुए देखा। तब आप हंसते हुए कहने लगे- ‘पिप्पली के टुकडे़ इसलिये किये थे कि उससे कफकी निवृत्ति हो, किंतु उसका प्रभाव उलटा ही हुआ। उससे कफकी निवृत्ति न होकर और अधिक बढ़ने ही लगा। इतना कहकर प्रभु फिर जोरों के साथ हंसने लगे। भक्तों में से किसी ने भी इस गूढ़ वचन का रहस्य नहीं समझा। केवल नित्यानन्द जी प्रभु की मनोदशा देखकर ताड़ गये कि जरूर प्रभु हम सबको छोड़कर कहीं अन्यत्र जाने की बात सोच रहे हैं। इसीलिये उन्होंने एकांत में प्रभु से पूछा-‘प्रभो! आप हमसे अपने मन की कोई बात नहीं छिपाते। आजकल आपकी दशा कुछ विचित्र ही हो रही है। हम जानना चाहते हैं, इसका क्या कारण है?’ नित्यानंद जी की ऐसी बात सुनकर गद्गद-कण्ठ से प्रभु कहने लगे- ‘श्रीपाद! तुमसे छिपाव ही क्या है? तुम तो मेरे बाहर चलने वाले प्राण ही हो। मैं अपने मन की दशा तुमसे छिपा नहीं सकता! मुझे कहने में दु:ख हो रहा है। अब मेरा मन यहाँ नहीं लग रहा है। मैं अब अपने अधीन नहीं हूँ। जीवों का दु:ख अब मुझसे देखा नहीं जाता। मैं जीवों के कल्याण के निमित्त अपने सभी संसारी सुखों का परित्याग करूँगा। मेरा मन अब गृहस्थ में नहीं लगता है। अब मैं परिव्राजक-धर्म का पालन करूंगा। जो लोग मेरी उत्तरोतर बढ़ती हुई कीर्ति से डाह करने लगे हैं, जो मुझे भक्तों के सहित आनन्द-विहार करते देखकर जलते है, जो मेरी भक्तों के द्वारा की हुई पूजा को देखकर मन-ही-मन हमसे विद्वेष करते हैं, वे जब मुझे मूँड़ मुड़ाकर घर-घर भिक्षा के टुकड़े माँगते देखेंगे, तो उन्हें अपने बुरे भावों के लिये पश्चात्ताप होगा। उसी पश्चात्ताप के कारण वे कल्याण-पथ के पथिक बन सकेंगे। इन मेरे घुंघराले काले-काले बालों ने ही लोगों के विद्वेषपूर्ण हृदय को क्षुभित बना रखा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भगवान के मथुरा जाने के समय वियाग-दु:ख से दु:खी हुई गोपिकाएँ परस्पर कह रही है-‘अरी सखियो! न हो तो चलो, हम सब भगवान के रख के सामने लेटकर या और किसी भाँति से उन्हें मथुरा जाने से रोंके। यदि यह कहो कि कुल के बड़े-बूढ़ों के सामने ऐसा साहस हम कर ही कैसे सकती है; सो इसकी बात तो यह है कि जिन मुकुन्द के मुख-कमल को देखे बिना हम क्षणभर भी नहीं रह सकतीं उन्ही का आज दैवयोग से असह्य वियागजन्य दु:ख आकर उपस्थित हो गया है, ऐसी दीन-चित्तवाली हम दु:खिनियों का कुल के बड़े-बूढ़े कर ही क्या सकते है? उनका हमें क्या भय?’ श्रीमद्भा.10/39/28