श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी73. भक्तों की लीलाएँ
तत्तद्भावानुमाधुर्य्ये श्रुते धीर्यदपेक्षते । प्रकृति से परे जो भाव हैं, उन्हें शास्त्रों में अचिन्त्य बताया गया है! वहाँ जीवों की साधारण प्राकृतिक बुद्धि से काम नहीं चलता, उन भावों में अपनी युक्ति लड़ाना व्यर्थ-सा ही है। यह तो प्रकृति के परे के भावों की बात हैं बहुत-सी प्राकृतिक घटनाएँ भी ऐसी होती हैं, जिनके सम्बन्ध में मनुष्य ठीक-ठीक कुछ कह ही नहीं सकता। क्योंकि कोई मनुष्य पूर्ण नहीं है। पूर्ण तो वही एकमात्र परमात्मा है। मनुष्य की बुद्धि सीमित और संकुचित है। जितनी ही जिसकी बुद्धि होगी, वह उतना ही अधिक सोच सकेगा। तर्क की कसौटी पर कसकर किसी बात की सत्यता सिद्ध नहीं हो सकती। किसी बात को किसी ने तर्क से सत्य सिद्ध कर दिया, किंतु उसी को उससे बड़ा तार्किक एकदम खण्डन कर सकता है। अत: इसमें श्रद्धा ही मुख्य कारण है; जिस स्थान पर जिसकी जैसी भी श्रद्धा जम गयी, उसे वहाँ सत्य और ठीक मालूम पडने लगा। रागानुगा भक्ति की उत्पत्ति हो जाने पर मनुष्य को अपने इष्ट की लीलाओं के प्रति लोभ उत्पन्न हो जाता है। लोभी अपने कार्य के सामने विघ्न-बाधाओं की परवा ही नहीं करता। वह तो आँख मूँदे चुप-चाप बढा़ ही चलता है। भक्तों की श्रद्धा में और साधारण लोगों की श्रद्धा में आकाश-पाताल का अन्तर है, भक्तों को जिन बातों में कभी शंका का ध्यान तक भी नहीं होता, उन्हीं बातों को साधारण लोग ढोंग, पाखण्ड, झूठ अथवा अर्थवाद कहकर उसकी उपेक्षा कर देते हैं। वे करते रहें, भक्तों को इससे क्या? जब वे शास्त्र और युक्तियों तक की अपेक्षा नहीं रखते तब साधारण लोगों की उपेक्षा की ही परवा क्यों करने लगे। महाप्रभु के संकीर्तन के समय भी भक्तों को बहुत-सी अद्भुत घटनाएं दिखायी देती थीं, जिनमें से दो-चार नीचे दी जाती हैं। एक दिन प्रभु ने श्रीवास के घर संकीर्तन के पश्चात आम की एक गुठली को लेकर आंगन में गाड़ दिया। देखते-ही-देखते उसमें से अकुंर उत्पन्न हो गया और कुछ ही क्षण में वह अकुंर बढ़कर पूरा वृक्ष बन गया। भक्तों ने आश्चर्य के सहित उस वृक्ष को देखा। उसी समय उस पर फल भी दीखने लगे और वे बात-की-बात में पके हुए-से दीखने लगे। प्रभु ने उन सभी फलों को तोड़ लिया और सभी भक्तों को एक-एक बांट दिया। आमों को देखने से ही तबीयत प्रसन्न होती थी, बड़े-बड़े़ सिंदूरिया-रंग के वे आम भक्तों के चित्तों को स्वत: ही अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे। उनमें से दिव्य गन्ध निकल रही थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भक्तों के शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य और मधुर इन रसों के आश्रित माधुर्य के श्रवण से जिनकी बुद्धि शास्त्रों की और युक्तियों की अपेक्षा नहीं रखती, वहाँ समझना चाहिये के भक्त को भगवान की लीलाओं के प्रति लोभ उत्पन्न होने लगा। अर्थात रागानुगा भक्ति की उत्पत्ति हो जाने पर शास्त्र वाक्यों तथा युक्तियों की अपेक्षा नहीं रहती।