श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी55. भक्त हरिदास
अहो बत श्वपचोऽतो गरीयान् जिनकी तनिक-सी कृपा की कोर के ही कारण यह नाम-रूपात्मक सम्पूर्ण संसार स्थित है, जिनके भ्रूभंगमात्र से ही त्रिगुणात्मिका प्रकृति अपना सभी कार्य बन्द कर देती है, उन अखिलकोटि-ब्रह्माण्डनायक भगवान के नाम-माहात्म्य का वर्णन बेचारी अपूर्ण भाषा कर ही क्या सकती है? हरि-नाम-स्मरण से क्या नहीं हो सकता। भगवन्नाम-जप से कौन-सा कार्य सिद्ध नहीं हो सकता? जिसकी जिह्वा को सुमधुर श्रीहरि के नामरूपी रस का चस्का लग गया है, उसके लिये फिर संसार में प्राप्त वस्तु ही क्या रह जाती है? यज्ञ, याग, जप, तप, ध्यान, पूजा, निष्ठा, योग, समाधि सभी का फल भगवन्नाम में प्रीति होना ही है, यदि इन कर्मों के करने से भगवन्नाम में प्रीति नहीं हुई, तो इन कर्मों को व्यर्थ ही समझना चाहिये। इन सभी क्रियाओं का अन्तिम और सर्वश्रेष्ठ फल यही है कि भगवन्नाम में निष्ठा हो। साध्य तो भगवन्नाम ही है, और सभी कर्म तो उसके साधनमात्र हैं। नाम-जप में देश, काल, पात्र, जाति, वर्ण, समय-असमय, शुचि-अशुचि इन सभी बातों का विचार नहीं होता। तुम जैसी हालत में हो, जहाँ हो, जैसे हो, जिस-किसी भी वर्ण के हो, जैसी भी स्थिति में हो, हर समय और हर काल में श्रीहरि के सुमधुर नामों का संकीर्तन कर सकते हो। नाम-जप से पापी-से-पापी मनुष्य भी परमपावन बन जाता है, अत्यन्त नीच-से-नीच भी सर्वपूज्य समझा जाता है, छोटे-से-छोटा भी सर्वश्रेष्ठ हो जाता है और बुरे-से-बुरा भी महान भगवद्भक्त बन जाता है। कबीरदास जी कहते हैं- नाम जपत कुष्ठी भलो, चुइ-चुइ गिरै जो चाम। भक्ताग्रगण्य महात्मा हरिदास जी यवन-कुल में उत्पन्न होने पर भी भगवन्नाम के प्रभाव से भगवद्भक्त वैष्णवों के प्रातःस्मरणीय बन गये। इन महात्मा की भगवन्नाम में अलौकिक निष्ठा थी। महात्मा हरिदास जी का जन्म बंगाल के यशोहर जिले के अन्तर्गत ‘बुड़न’ नाम के एक ग्राम में हुआ था। ये जाति के मुसलमान थे। मालूम होता है, बाल्यकाल में ही इनके माता-पिता इन्हें मातृ-पितृहीन बनाकर परलोकगामी बन गये थे, इसीलिये ये छोटेपन से ही घर-द्वार छोड़कर निरन्तर हरिनाम का संकीर्तन करते हुए विचरने लगे। पूर्व-जन्म के कोई शुभ संस्कार ही थे, भगवान की अनन्य कृपा थी, इसीलिये मुसलमान-वंश में उत्पन्न होकर भी इनकी भगवन्नाम में स्वाभाविक ही निष्ठा जम गयी। भगवान ने अनेकों बार कहा है- ‘यस्याहमनुगृह्णामि हरिष्ये तदधनं शनैः।’ अर्थात जिसे मैं कृपा करके अपनी शरण में लेता हूँ, सबसे पहले धीरे से उसका सर्वस्व अपहरण कर लेता हूँ। उसके पास अपना कहने के लिये किसी भी प्रकार का धन नहीं रहने देता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अहा हा ! हे प्रभो ! जिसकी जिह्वा पर तुम्हारा सुमधुर नाम सदा बना रहता है, वह यदि जाति का श्वपच भी हो तो उन ब्राह्मणों से भी अत्यन्त पवित्र है, जो तुम्हारे नाम की अवहेलना करके निरन्तर यज्ञ-याज्ञादि कर्मों में ही लगे रहते हैं। हे भगवान ! जो तुम्हारे त्रैलोक्य-पावन नाम का संकीर्तन करते हैं, उन्होंने ही यथार्थ में सम्पूर्ण तपों का, सस्वर वेद का, विधिवत हवन का और सभी तीर्थों का फल प्राप्त किया है, क्योंकि तुम्हारे पुण्य-नामों में सभी पुण्य-कर्मों का फल निहित है। श्रीमद्भा. 3/33/7