श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी140. श्री सनातन की कारागृह से मुक्ति और काशी में प्रभु-दर्शन
छिद्रान्वेषणतत्परः प्रियसखि प्रायेण लोकोऽधुना श्रीरूप तो प्रभु की आज्ञा शिरोधार्य करके प्रयाग से वृन्दावन को चले गये। अब उन के छोटे भाई श्रीसनातन का समाचार सुनिये। वास्तव में सनातनजी श्री रूप से अवस्था में बड़े थे, किन्तु उनसे पहले ही श्री रूप को प्रभु को समीप रहकर भक्तिमार्ग का उपदेश प्राप्त हुआ था। भक्ति मार्ग में अवस्था से बड़प्पन न होकर गुरु-कृपा से ही बड़ेपन का विचार किया जाता है। महाप्रभु की कृपा के पात्र प्रथम श्री रूप ही हुए थे, अतः सनातन जी इन्हें अपने से श्रेष्ठ और गुरु समझते थे। सब वैष्णवो में भी ऐसी ही मान्यता थी। इसीलिये वैष्णव समाज में श्री सनातन-रूप न कहे जाकर श्रीसनातन-रुप न कहे जाते हैं। अवस्था में छोटे होने पर भी प्रथम गुरु-कृपा होने के कारण श्री रूप का ही नाम पहले लिया जाता है। कारावास की काली कोठरी में पड़े हुए श्री सनातनजी श्री चैतन्य की मनमोहिनी मूर्ति का ही सदा ध्यान करते रहते। उन्हें अन्न-जल कुछ भी नहीं भाता था। नेत्रों में नींद का नाम तक नहीं। दिन-रात्रि 'गौराचाँद' 'गौराचाँद' रटते-रटते ही इनके आठों प्रहर बीतते। रात्रि बीत जाती, दिन आ जाता। दिन ढलकर शाम हो जाती, फिर अन्ध कार छा जाता, किन्तु इन्हें इस का कुछ भी ध्यान नहीं। ये तो चैतन्य-चिन्तन में सभी कामों को भूले हुए थे। इन का मन मधुप सदा अरुण रंग वाले श्री चैतन्य पदारविन्दों में ही गुंजार करता रहता। शरीर कारावास की काल कोठरी में पड़ा हुआ धौंकनी की तरह साँस लेता रहता। जब इन्हें बाह्य ज्ञान होता, तभी इन का दिल धड़क ने लगता, इस बात के स्मरण से कि मेरा शरीर श्री चैतन्य-चरणों से पृथक होकर कारावास में पड़ा हुआ है, ये इन विचारों के आते ही मूर्च्छित हो जाते और लम्बी-लम्बी सांसें छोड़ने लगते। इसी बीच गुप्त रीति से इन्हें अपने बड़े भाई का पत्र मिला। पत्र को पढ़कर इनकी विकलता और भी बढ़ गयी। ये चैतन्य-चरणों के मंगलमय तलुओं में अपने मस्तक को रगड़ने के लिये व्यग्र हो उठे। मोदी के यहाँ दस हजार रूपयों का समाचार पाते ही इन्होंने सोचा- 'इन चांदी के ठीकरों के द्वारा ही प्रेम के कारावास से मेरी हो जाय और मैं चैतन्य -चरणों के दर्शन पा सकूँ तो यह जीवन सार्थक हो जाय।' प्रेम में नियम कैसा? प्रेम तो नियम के झंझटो से परे है। उन्होंने उसी समय कारावास के प्रधान कर्मचारी से कहा-' भाई ! तुम मुझे जानते हो, मैं कौन हूँ?' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पति के समीप गमन करने वाली सखी से दूसरी सखी कह रही है- 'प्यारी सखी! देख, संसारी लोग बड़े ही छिद्रान्वेषण करने वाले होते हैं, वे सदा दूसरों की बुराइयों को ही खोजा करते हैं और फिर दूसरे आज बड़ी अन्धकारपूर्ण रात्रि है, ऐसे समय में बहुत दूर पर स्थित अपने प्यारे के पास तेरा जाना ठीक नहीं है।' इसे सुनते ही चौंककर जल्दी से उसके मुख पर हाथ रखते हुए सखी कहने लगी- 'बहिन! ऐसी बात फिर कभी मुख से मत निकालना। जो मेरे जीवन सर्वस्व हैं, हृदय वल्लभ हैं, मैं उनके दर्शन के लिये उत्कण्ठित हूँ, इसमें यदि उचित-अनुचित का विचार हो तब तो समझ लो कि स्नेह को तिलांजलि दे दी गयी अर्थात स्नेह में उचित-अनुचित का विचार ही नहीं होता। किसी तरह प्यारे से भेंट हो यही उद्देश्य रहता है।' सु. र. भां. 373।33