श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी52. प्रच्छन्न भक्त पुण्डरीक विद्यानिधि
तदश्मसारं हृदयं बतेदं जिनके हृदय में भगवान के प्रति भक्ति उत्पन्न हो गयी है, जिनका हृदय श्याम-रंग में रँग गया है, जिनकी भगवान के सुमधुर नामों तथा उनकी जगत-पावनी लीलाओं में रति है, उन बड़भागी भक्तों ने ही यथार्थ में मनुष्य-शरीर को सार्थक बनाया है। प्रायः देखा गया है कि जिनके ऊपर भगवत्कृपा होती है, जो प्रभु के प्रेम में पागल बन जाते हैं, उनका बाह्य जीवन भी त्यागमय बन जाता है, क्योंकि जिसने उस अद्भुत प्रेमासव का एक बार भी पान कर लिया, उसे फिर त्रिलोकी के जो भी संसारी सुख हैं, सभी फीके-फीके-से प्रतीत होने लगते हैं। संसारी सुखों में तो मनुष्य तभी तक सुखानुभव करता है, जब तक उसे असली सुख का पता नहीं चलता। जिसने एक क्षण को भी सुखस्वरूप प्रेमदेव के दर्शन कर लिये फिर उसके लिये सभी संसारी पदार्थ तुच्छ-से दिखायी देने लगेंगे। इसीलिये प्रायः देखा गया है कि परमार्थ के पथिक भगवद्भक्तों तथा ज्ञाननिष्ठ साधकों का जीवन सदा त्यागमय ही होता है। वे संसारी भोगों से स्वरूपतः भी दूर ही रहते हैं, किंतु कुछ ऐसे भी भक्त देखने में आते हैं कि जिनका जीवन ऊपर से तो संसारी लोगों का-सा प्रतीत होता है, किंतु हृदय में अगाध भक्ति-रस भरा हुआ होता है। जो जरा-सी ठेस लगते ही छलककर आँखों के द्वारा बाहर बहने लगता है। असल में भक्ति का सम्बन्ध तो हृदय से है, यदि मन विषयवासनाओं में रत नहीं है, तो कैसी भी परिस्थिति में क्यों न रहें, हृदय सदा प्रभु के पादपद्मों का ही चिन्तन करता रहेगा। यही सोचकर महाकवि केशव कहते हैं- कहैं ‘केशव’ भीतर जोग जगै इत बाहिर भोगमयो तन है। प्रायः देखा गया है कि त्यागमय जीवन बिताने से साधक के मन में ऐसी धारणा-सी हो जाती है कि बिना स्वरूपतः बाह्य त्यागमय जीवन बिताये भगवद्भक्ति प्राप्त ही नहीं होती। भक्तिमार्ग में यह बड़ा भारी विघ्न है, त्यागमय जीवन जितना भी बिताया जाय उतना ही श्रेष्ठ है, किंतु यह आग्रह करना कि स्वरूपतः त्याग किये बिना कोई भक्त बन ही नहीं सकता, वह त्यागजन्य एक प्रकार का अभिमान ही है। भक्त को तो तृण से भी नीचा बनकर कुत्ते, चाण्डाल, गौ और गधे तक को भी मन से नहीं, किंतु शरीर से दण्ड की तरह पृथ्वी पर लेटकर प्रणाम करना चाहिये, तभी अभिमान दूर होगा। भक्तों के विषय में कोई क्या कह सकता है कि वे किस रूप में रहते हैं? नाना परिस्थितियों में रहकर भक्तों को जीवन बिताते देखा गया है, इसलिये जिसके जीवन में बाह्य त्याग के लक्षण प्रतीत न हों, वह भक्त ही नहीं, ऐसा कभी भी न सोचना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीहरि भगवान के मधुर नामों के श्रवणमात्र से जिनके हृदय में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न न हो अथवा जिनके शरीर में स्वेद, कम्प, अश्रु तथा रोमांच आदि सात्त्विक भावों का उदय न होता हो तो समझना चाहिये कि उन पुरुषों का हृदय फौलाद का बना हुआ है। श्रीमद्भा. 2/3/24