श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी6. चैतन्य-कालीन भारत
भ्रातः कष्टमहो महान् स नृपतिः सामन्तचक्रं च तत् महाप्रभु चैतन्यदेव का प्रादुर्भाव विक्रम की सोलहवीं शताब्दी के मध्य भाग में हुआ और वे लगभग आधी शताब्दी तक इस धराधाम पर विराजमान रहकर भावुक भक्तों को निरामय श्रीकृष्ण-प्रेम-पीयूष का पान कराते रहे। उस समय के और आज के भारत की तुलना कीजिये। आकाश-पाताल का अन्तर हो गया, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा धर्मिक सभी प्रकार की स्थितियों में घोर परिवर्तन हो गया। न जाने इस्लाम-धर्म का वह दौर-दौरा कहाँ चला गया, मुसलमान बादशाहों के ऐश-आराम की वे बातें इतिहास के निर्जीव पृष्ठों पर ही लिखी रह गयीं। हिन्दुओं की वह आचार-विचार की दृढ़ता, स्वधर्म के प्रति कट्टरता न जाने कहाँ विलुप्त हो गयी। उस समय लाखों सती स्त्रियाँ अपने पतियों के मृतक शरीरों के साथ हँसते-हँसते जीवित ही जल जाती थीं, इसे बीसवीं शताब्दी का महिलामण्डल कब स्वीकार करने लगा। न जाने एक रूपये के आठ मन चावलों की बात किसी ने वैसे ही लिख दी थी, क्या इसका अनुमान इस युग के मनुष्य कठिनता से कर सकेंगे? भक्तों का वह आदर्श प्रेम, कृष्णभक्ति की वह निष्कपटता, सेवा-पूजा में उतनी श्रद्धा और रति इन बीसवीं शताब्दी के साम्प्रदायिक पक्षपात से पूर्ण हृदयवाले भक्तों में कब देखने में आ सकती हैं। वे बातें तो समय के साथ ही विलुप्त हो गयीं। वह असली प्रेम तो उन महापुरुषों के साथ ही चला गया, अब तो साँप की लकीर शेष रह गयी है, उसे चाहे जैसे पीटते रहो। साँप तो निकल गया। वह तो उसी समय की रागिनी थी। महाकवि भवभूति ने ठीक ही कहा है- समय एव करोति बलाबलं प्रणिगदन्त इतीव शरीरिणाम्। अर्थात समय ही अच्छा और बुरा बनाने में कारण है। मयूरों का स्वर वर्षा में ही भला मालूम पड़ता है और हंसों का शरद्-ऋतु में ही। सचमुच समय की गति बड़ी ही विलक्षण है। महाप्रभु, श्रीचैतन्यदेव का प्राकट्य जिस काल में हुआ, वह समय बड़ा ही विलक्षण था, उस युग को महान क्रान्ति-युग कह सकते हैं। उस समय सम्पूर्ण भारतवर्ष में चारों ओर राजनैतिक, सामाजिक और धार्मिक सभी प्रकार की घोर क्रान्ति मची हुई थी। उस समय तक प्रायः ऐसी मान्यता थी कि जो दिल्ली के सिंहासन पर विराजमान है, वही सम्पूर्ण भारत का सर्वश्रेष्ठ नरपति है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पहले यहाँ कैसी सुन्दर नगरी थी, उसका राजा कैसा महान था और उसका राज्य कितनी दूर तक फैला हुआ था। उसकी सभा कैसी सुन्दर थी और उसके यहाँ चन्द्रमुखी स्त्रियाँ कैसी शोभायमान होती थीं, उन राजपुत्रों का समूह कैसा प्रबल था और वे वन्दीगण कैसी-कैसी सुमधुर कमनीय कथा कहा करते थे। अब वे सभी बातें केवल सुनने के ही लिये शेष रह गयीं, जिस काल के वश होकर ये सब लुप्त हो गये, उस काल को नमस्कार है।