श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी11. प्रेम-प्रवाह
अद्वैतं सुखदुःखयोरनुगतं सर्वास्ववस्थासु यद् ओत-प्रोतरूप से परिप्लावित इस प्रेमपयोधिरूपी जगत में जीव अपनी क्षुद्रता के कारण ऐसे संकीर्ण सम्बन्ध स्थापित कर लेता है, कि उस प्रेमपीयूष का सम्पूर्ण स्वारस्य एकदम नष्ट हो जाता है। अहा! जब सुख-दुख में समान भाव हो जाय, किसी भी अवस्था में चित्त की वृत्ति सजातीय-विजातीय का अनुभव न करने लगे, उस समय के सुख का भला क्या कहना है? ऐसा प्रेम किसी विरले ही महापुरुष के शरीर में प्रकट होता है और उनकी प्रीति के पात्र कोई बड़भागी ही सुजन होते हैं। महापुरुषों में जन्म से ही यह विश्व-विमोहन प्रेम होता है। सभी महापुरुषों के सम्बन्ध में हम चिरकाल से सुनते आ रहे हैं, कि वे जन्म से ही सभी प्राणियों में समान भाव रखते थे। महात्मा नानक जी जब बाल्यावस्था में भैंस चराने जाते तो एकान्त में बैठकर ध्यान करने लगते। बहुत-से लोगों ने प्रत्यक्ष देखा कि एक बड़ा भारी सर्प अपने फण से उनके ऊपर छाया किये रहता और जब वे ध्यान से उठते तब चला जाता। सिंहों को कुत्ते की तरह पूँछ हिलाते अभी तक तपस्वियों के आश्रम में देखा गया है। महापुरुषों के अंग में वह प्रेम की आकर्षक बिजली जन्म से ही होती है, कि पापी-से-पापी पुरुष की तो बात ही क्या है, पशु-पक्षी, कीट-पतंग तक उनके आकर्षण से खिंचकर उनके चेरे हो जाते हैं। शची देवी के छोटे से आँगन में जो दिन-रात्रि ‘हरि हरि बोल, बोल हरि बोल। मुकुन्द माधव गोविन्द बोल।।’ की ध्वनि गूँजती रहती है, इसका कारण निमाई की अपूर्व रूपमाधुरी ही नहीं है, किन्तु उनकी विश्वमोहिनी मन्द-मुसकान ने ही पास-पड़ोसियों की स्त्रियों को चेरी बना लिया है, उन्हें निमाई की मन्द-मुसकान के देखे बिना कल ही नहीं पड़ती। माताओं का यह सनातन स्वभाव है कि उनकी सन्तान पर जो कोई प्रेम करता है तो उनके हृदय में एक प्रकार की मीठी-मीठी गुदगुदी होती है, उनका जी चाहता है इस प्यार करने वाले पुरुष को मैं क्या दे दूँ? स्त्रियाँ निमाई को जितना ही प्यार करतीं, शची माता निमाई को उतना ही और अधिक सजातीं। मातृ-हृदय को भी ब्रह्मा जी ने एक अपूर्व पहेली बनाया है। निमाई अभी छोटा है, बहुत-से स्थानों से बालक के लिये छोटे-छोटे सिले वस्त्र और गहने आये हैं। माता ने अब निमाई को उन्हें पहनाना आरम्भ कर दिया है। एक दिन माता ने निमाई को उबटन लगाकर खूब नहवाया। तेल डालकर छोटे-छोटे घुँघराले बालों को कंघी से साफ किया। एक पीला-सा कुर्ता शरीर में पहनाया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जो कि सुखः दुःख में समान रहता है तथा सम्पूर्ण अवस्थाओं में अपने अनुकूल ही बना रहता है? जो हृदय का एकमात्र विश्रामस्थान है, वृद्धावस्था जिसके रस को नष्ट नहीं कर सकती, जो समय के बदलने से स्वयं नहीं बदलता है और जिसकी स्थिति सदा स्नेह-सागर में ही रहती है, सत्पुरुष के इस प्रकार के सुन्दर प्रेम के पात्र कोई पुरुष ही होते हैं।