श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी167. उन्मादावस्था की अदभुत आकृति
महाप्रभु की दिव्योन्मादावस्था बडी ही अद्भुत थी। उन्हें शरीर का जब होश नहीं था, तब शरीर को स्वस्थ रखने की परवा तो रह ही कैसे सकती है? अपने को शरीर से एकदम पृथक समझकर सभी चेष्टाएं किया करते थे। उनकी हृदय को हिला देने वाली अपूर्व बातों को सुनकर ही हम शरीराध्यासियों के तो रोंगटे खडे हो जाते हैं। क्या एक शरीरधारी प्राणी इस प्रकार की सुधि भुलाकर ऐसा भयंकर व्यापार कर सकता है, जिसके श्रवण से ही भय मालूम पड़ता हो, किन्तु चैतन्यदेव ने तो ये सभी चेष्टाएँ की थीं और श्री रघुनाथदास गोस्वामी ने प्रत्यक्ष अपनी आँखों से उन्हें देखा था। इतने पर भी कोई अविश्वास करे तो करता रहे। महाप्रभु की गम्भीरा की दशा वर्णन करते हुए कविराज गोस्वामी कहते हैं– अर्थात ‘गम्भीरा मन्दिर के भीतर महाप्रभु एक क्षण के लिये भी नहीं सोते थे। कभी मुख और सिर को दीवारों से रगडने लगते। इस कारण रक्त की धारा बहने लगती और सम्पूर्ण मुख क्षत-विक्षत हो जाता। कभी द्वारों के बंद रहने पर भी बाहर आ जाते, कभी सिंहद्वार पर जाकर पडे रहते तो कभी समुद्र के जल में कूद पडते।’ कैसा दिल को दहला देने वाला हृदयविदारक वर्णन है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्री रघुनाथ गोस्वामी कहते हैं– ‘बंद हुए तीनों द्वारों को बिना खोले ही और तीनों परकोटाओं की भित्ति को लाँघकर जो कृष्ण-विरह में पागल हुए शरीर को संकोच के कारण उन्मादावस्था में कछुए की तरह बनाये हुए कलिंगदेशीय गौओं के बीच में जा पड़े थे, वे ही गौरांग मेरे हृदय में उदित होकर मुझे मदमत्त बना रहे हैं।’ चै. स्त. कल्पवृक्ष