श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी150. छोटे हरिदास को स्त्री-दर्शन का दण्ड
सचमुच संसार के आदि से सभी महापुरुष एक स्वर से निष्किंचन, भगवद्भक्त अथवा ज्ञाननिष्ठ वैरागी के लिये कामिनी और कांचन- इन दोनों वस्तुओं को विष बताते आये हैं। उन महापुरुषों ने संसार के सभी प्रिय लगने वाले पदार्थों का वर्गीकरण करके समस्त विषय-सुखों का समावेश इन दो ही शब्दों में कर दिया है। जो इन दोनों से बच गया वह इस अगाध समुद्र के परले पार पहुँच गया और जो इनमें फंस गया वह मंझधार में डुबकियां खाता बिलबिलाता रहा। कबीर दास ने क्या सुन्दर कहा है- यथार्थ में इन दो घाटियों का पार करना अत्यन्त ही कठिन हैं, इसीलिये महापुरुष स्वयं इनसे पृथक रहकर अपने अनुयायियों को कहकर, लिखकर, प्रसन्न होकर, नाराज होकर तथा भाँति-भाँति से घुमा-फिराकर इन्हीं दो वस्तुओं से पृथक रहने का उपदेश देते हैं। त्याग और वैराग्य के साकार स्वरूप चैतन्य महाप्रभुदेव जी भी अपने विरक्त भक्तों को सदा इनसे बचे रहने का उपदेश करते और स्वयं भी उन पर कड़ी दृष्टि रखते। तभी तो आज त्यागिशिरोमणि श्रीगौर का यश सौरभ दिशा-विदिशाओं में व्याप्त हो रहा है। व्रजभूमि में असंख्यों स्थान महाप्रभु के अनुयायिकों के त्याग-वैराग्य का अभी तक स्मरण दिला रहे हैं। पाठक महात्मा हरिदास जी के नाम से तो परिचित ही होंगे। हरिदास जी वयोवृद्ध थे और सदा नाम-जप ही किया करते थे। इनके अतिरिक्त एक-दूसरे कीर्तनिया हरिदास और थे। वे हरिदास जी से अवस्था में बहुत छोटे थे, गृहत्यागी थे और महाप्रभु को सदा अपने सुमधुर स्वर से संकीर्तन सुनाया करते थे। भक्तों में वे 'छोटे हरिदास' के नाम से प्रसिद्ध थे। वे पुरी में ही प्रभु के पास रहकर भजन-संकीर्तन किया करते थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाप्रभु चैतन्य देव सार्वभौम भट्टाचार्य कहते हैं- खेद के साथ कहना पड़ता है कि जो लोग इस असार संसाररूपी समुद्र के उस पार जाना चाहते हैं और जिनका भगवान के भजन की ओर झुकाव हो चाल है, ऐसे निष्किंचन भगवद्भक्त के लिये स्त्रियों और विषयी पुरुषों का स्वेच्छा से दर्शन करना विष खा लेने से भी बुरा है, अर्थात स्त्रियों और विषयी लोगों के संसर्ग की अपेक्षा विष खाकर मर जाना सर्वश्रेष्ठ है। श्रीचैतन्यचन्द्रोदयना. 8/24