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श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी
150. छोटे हरिदास को स्त्री-दर्शन का दण्ड
प्रभु के समीप बहुत-से विरक्त भक्त पृथक-पृथक स्थानों में रहते थे। वे सभी भक्ति के कारण कभी-कभी प्रभु को अपने स्थान पर बुलाकर भिक्षा कराया करते थे। भक्तवत्सल गौर उनकी प्रसन्नता के निमित्त उनके यहाँ चले आते थे और उनके भोजन की प्रशंसा करते हुए भिक्षा भी पा लेते थे। वहीं पर भगवानाचार्य नाम के एक विरक्त पण्डित निवास करते थे, उनके पिता सतानन्द खां घोर संसारी पुरुष थे, उनके छोटे भाई का नाम थो गोपाल भट्टाचार्य। गोपाल श्री काशी जी से वेदान्त पढ़कर आया था, उसकी बहुत इच्छा थी कि मैं प्रभु को अपना पढ़ा हुआ शारीरकभाष्य सुनाऊं, किन्तु वहाँ तो सब श्री कृष्ण कथा के श्रोता थे। जिसे जगत प्रपंच समझना हो और जीव-ब्रह्म की एकता का निर्णय करना हो, वह वेदान्तभाष्य सुन अथवा पढ़े। जहाँ श्री कृष्ण प्रेम को ही जीवन का एकमात्र ध्येय मानने वाले पुरुष हैं, जहाँ भेदाभेद को अचिन्त्य बताकर उससे उदासीन रहकर श्रीकृष्ण कथा की ही प्रधानता दी जाती है, वहाँ पदार्थों की सिद्धि के प्रसंग को सुनना कोई क्यों पसंद करेगा। अत: स्वरूप गोस्वामी के कहने से वे भट्टाचार्य महाशय अपने वेदान्त ज्ञान को ज्यों-का-त्यों ही लेकर अपने निवास स्थान को लौट गये। आचार्य भगवान जी वहीं पुरी में रह गये। उनकी स्वरूप दामोदर जी से बड़ी घनिष्ठता थी। वे बीच-बीच में कभी-कभी प्रभु का निमन्त्रण करके उन्हें भिक्षा कराया करते थे।
जगन्नाथ जी में बने-बनाये पदार्थों का भोग लगता है और भगवान के महाप्रसाद को दुकानदार बेचते भी हैं। किन्तु जो चावल बिना सिद्ध किये कच्चे ही भगवान को अर्पण किये जाते हैं, उन्हें 'प्रसादी' या 'अमानी' अन्न कहते हैं, उस का घर पर ही लोग भात बना लेते हैं। भगवान जी ने घर पर ही प्रभु के लिये भात बनाने का निश्चय किया।
पाठकों को सम्भवत: शिखि माहिती का स्मरण होगा, वे श्री जगन्नाथ जी के मन्दिर में हिसाब-किताब लिखने का काम करते थे, उनके मुरारी नाम का एक छोटा भाई और माधवी नाम की एक बहिन थी। दक्षिण की यात्रा से लौटने पर सार्वभौम भट्टाचार्य ने इन तीनों भाई-बहिनों का प्रभु से परिचय कराया था। ये तीनों ही श्रीकृष्ण भक्त थे और परस्पर बड़ा ही स्नेह रखते थे। माधवी दासी परम तपस्विनी और सदाचारिणी थी। इन तीनों का ही महाप्रभु के चरणों में दृढ़ अनुराग था। महाप्रभु माधवी दासी का गणना राधा जी के गणों में करते थे। उन दिनों राधा जी के गणों में साढ़े तीन पात्रों की गणना थी- (1) स्वरूप दामोदर, (2) राय रामानन्द, (3) शिखि माहिती और आधे पात्र में माधवी देवी की गणना थी। इन तीनों का महाप्रभु के प्रति अत्यन्त ही मधुर श्रीमती जी का-सा सरस भाव था।
भगवानाचार्य जी ने प्रभु के निमन्त्रण के लिये बहुत बढि़या महीन शुक्ल चावल लाने के लिये छोटे हरिदास से कहा। छोटे हरिदास जी माधवी दासी के घर में भीतर चले गये और भीतर जाकर उनसे चावल मांगकर ले आये। आचार्य ने विधिपूर्वक चावल बनाये। कई प्रकार के शाक, दाल, पना तथा और भी कई प्रकार की चीजें उन्होंने प्रभु के निमित्त बनायीं। नियत समय पर प्रभु स्वयं आ गये। आचार्य ने इनके पैर धोये और सुन्दर स्वच्छ आसन पर बैठाकर उनके सामने भिक्षा परोसी। सुगन्धि युक्त बढि़या चावलों को देखकर प्रभु ने पूछा- 'भगवन ! ये ऐसे सुन्दर चावल कहाँ से मंगाये?'
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