श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी110. नौरो जी डाकू का उद्धार
संसारसिन्धुतरणे हृदयं यदि स्यात। प्रेम में न भय है, न द्वेष। जिसने प्रेम का प्याला पी लिया है, उसे संसार में सर्वत्र उसी एक परम प्रेमास्पद प्रभु का ही रूप दिखायी देता है, जब सभी अपने प्रेमास्पद हैं तो भय किसका। भय तो दूसरे से होता है। अपने-आपसे किसी को भय नहीं। द्वेष गैर से किया जाता है, जब सभी श्यामसुन्दर के हैं तब द्वेष किससे करें और क्यों करें? महाप्रभु गौरांगदेव इस प्रकार खाण्डवादेव में देव दासियों को श्रीकृष्ण-कीर्तन का उपदेश देकर आगे को चले। वहाँ से थोड़ी दूर पर एक चोरानन्दी वन था, इस वन में बहुत से डाकू बसते थे। उन सब डाकूओं का दलपति नौरोजी डाकू था, वह बड़ा ही क्रूर और हिसंक था। सभी लोग उसके नाम से थर्राते थे। उस प्रदेश में उसके नाम का आतंक था। जब प्रभु ने उस वन में प्रवेश करने का विचार किया तो लोगों ने उन्हें वहाँ जाने से मना किया और कहा कि ‘वे डाकू बड़े हिंसक हैं, आप का उधर से जाना ठीक नहीं है।’ किन्तु महाप्रभु उनकी बात को क्यों मानने लगे। उन्होंने कहा-‘भाई, डाकू लोग तो रुपये-पैसे के लिये लोगों को मारते हैं। हम घर घर के भिखारी संन्यासी हैं, हमें मारकर वे क्या लेंगे? वे यदि हमारी जान ही लेना चाहते हों तो भले ही ले लें। इस शरीर से यदि किसी का भी काम चल जाय तो बड़ा उत्तम है।’ ऐसा कहकर प्रभु उस वन में घुस गये। वहाँ एक वृक्ष के नीचे प्रभु पड़ रहे और शनै: शनै: सुमधुर हरि नाम संकीर्तन करने लगे। दलपति नौरोजी ने सुना कि कोई संन्यासी यहाँ हमारे जंगल में आया है, वह अपने दल के अनेक पुरुषों के साथ प्रभु के पास आया और प्रभु को भोजन के लिये निमन्त्रित किया तथा अपने स्थान पर चलने का आग्रह किया। प्रभु ने कहा- ‘हम तो संन्यासी हैं, वृक्षतले ही हमारा आसन ठीक है, रही भोजन की बात, भिक्षा ही हमारा एकमात्र आधार है, आप जो भिक्षा ले आवेंगे उसे हम सहर्ष स्वीकार करेंगे।’ प्रभु की ऐसी आज्ञा पाकर उसने अपने दल के आदमियों को आज्ञा दी; वे बात की बात में भाँति-भाँति की खाने की सामग्री ले आये। महाप्रभु श्रीकृष्ण प्रेम में विभोर थे, उन्हें शरीर का ज्ञान ही नहीं था, वे प्रेम में गदगद कण्ठ से उन्मत्त की तरह कीर्तन कर रहे थे, कभी कभी नाचने भी लगते थे। नौराजी अपने दल बल सहित प्रभु को घेरे बैठा था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ संसार सागर को पार करने की यदि तुम्हारे हृदय में प्रबल इच्छा है, यदि संकीर्तनामृतरस पान करने के लिये तुम्हारा मन चाहता है, यदि प्रेमपयोधि में प्रेमपूर्वक विहार करने के लिये तुम्हारे चित्त की वृत्तियाँ छटपटाती हैं तो तुम श्रीचैतन्य-चरणों की शरण लो। (तुम्हारा मंगल होगा)। प्रबोधानन्द सरस्वती