श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी154. पुरीदास या कवि कर्णपूर
जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धा: कवीश्वरा:। कविता एक भगवद्दत्त वस्तु है। जिसके हृदय में कमनीय कविता करने की कला विद्यमान है उसके लिये फिर राज्य सुख की क्या अपेक्षा। इन्द्रासन उसके लिये तुच्छ है। कविता गणित की तरह अभ्यास करने से नहीं आती, वह तो अलौकिक प्रतिभा है, किसी भाग्यवान पुरुष को ही पूर्वजन्मों के पुण्यों के फलस्वरूप प्राप्त हो सकती है। कवि क्या नहीं कर सकता? जिसे चाहे अमर बना सकता है। जिसे चाहे पाताल पहुँचा सकता है। भोज, विक्रम जैसे अरबों-खरबों नहीं असंख्यों राजा हो गये, उनका कोई नाम क्यों नहीं जानता-इसलिये कि वे कालिदास जैसे कवि कुलचूडामणि महापुरुष के श्रद्धाभाजन नहीं बन सके। थोडढ़ी देर के लिये भगवान राम-कृष्ण के अवतारीपने की बात को छोड दीजिये। सामान्य दृष्टि से वक केवल अपने प्रचण्ड दोर्दण्डबल के कारण नहीं बन सके। वाल्मीकि और व्यास ने उन्हें बली और वीर बनाया। तभी तो मैं कहता हूँ, कवि ईश्वर है, अचतुर्भज विष्णु है, एक मुख वाला ब्रह्मा है और दो नेत्रों वाला शिव है। कवि वन्द्य है, पूज्य है, आदरणीय और सम्माननीय है। कवि के चारणों की वन्दना करन ईश्वर की वन्दना के समान है। कविता रूप से श्रीहरि ही उसके मुख से भाषण करते हैं, जिसे सुनकर सुकृति और भाग्यवान पुरुषों का मन मयूर पंख फैलाकर नृत्य करने लगता है और नृत्य करते-करते अश्रुविमोचन करता है। उन अश्रुओं को बुद्धिरूपी मयूरी पान करती है और उन्हीं अश्रुओं से आह्लादरूपी गर्भ को धारण करती है, जिससे आनन्दरूपी पुत्र की उत्पत्ति होती है। वे पिता धन्य हैं जिनके घर में प्रतिभाशाली कवि उत्पन्न होते हैं। ऐसा सौभाग्य श्री शिवानन्द सेन-जैसे सुकृति, साधुसेवी और भगवद्भक्त पुरुषों को ही प्राप्त हो सकता है, जिनके कवि कर्णपूर-जैसे नैसर्गिक प्रतिभा सम्पन्न कवि पुत्र उत्पन्न हुए कविता का कोई निश्चय नहीं, वह कब परिस्फुट हो उठे। किसी किसी में तो जन्म से ही वह शक्ति विद्यमान रहती है, जहाँ वे बोलने लगते हैं वहीं उनकी प्रतिभा फूटने लगती है। कवि कर्णपूर ऐसे ही स्वाभाविक कवि थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उन परमपुण्यवान रससिद्ध कवीश्वरों की जय हो, जिनके यशरूपी शरीर को अवश्य प्राप्त होने वाले बुढ़ापे तथा मरण का भय नहीं है। अर्थात कवियों का यथार्थ शरीर उनका सुयश ही है। उनका सुयश सदा अमर बना रहता है। उसका नाश कभी नहीं होता। भर्तृहरि. नीति. 24