श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी160. जगदानन्द जी की एकनिष्ठा
अर्चायामेव हरये पूजां यः श्रद्धयेहते। शास्त्रों में भक्तों के उत्तम, मध्यम और प्राकृत रूप से तीन भेद बताये गये हैं। जो भक्त अपने इष्ट देव को सर्वव्यापक समझकर प्राणिमात्र के प्रति श्रद्धा के भाव रखता है और सभी वस्तुओं में इष्टबुद्धि रखकर उनका आदर करता है, वह सर्वोत्तम भक्त है। जो अपने इष्ट में प्रीति रखता है और अपने ही समान इष्ट बन्धुओं के प्रति श्रद्धा का भाव, असाधकों के प्रति कृपा के भाव, विद्वेषियों और भिन्न मत वालों के प्रति उपेक्षा के भाव रखता है, वह मध्यम भक्त है और जो अपने इष्ट के विग्रह में ही श्रद्धा के साथ उन श्री हरि की पूजा करता तथा भगवत भक्तों की तथा अन्य पुरुषों से एकदम उदासीन रहता है, वह प्राकृत भक्त है। प्राकृत भक्त बुरा नहीं है, सच पूछिये तो भक्ति का सच्चा श्री गणेश तो यहीं से होता है, जो पहले प्राकृत भक्त नहीं बना वह उत्तम तथा मध्यम भक्त बन ही कैसे सकता है। नीचे की सीढ़ियों को छोड़कर सबसे ऊँची पर बिना योगेश्वरेश्वर कृपा से कोई भी नहीं जा सकता। पण्डित जगदानन्द जी सरल प्रकृति के भक्त थे, वे प्रभु के शरीर सुख के पीछे सब कुछ भूल जाते थे। प्रभु के अतिरिक्त उनके लिये कोई पूजनीय संन्यासी नहीं था, प्रभु के सभी काम लीला हैं, यही उनकी भावना थी। महाप्रभु भी उनके ऊपर परम कृपा रचाते थे। इनके क्षण क्षण में रूठने और क्रुद्ध होने के स्वभाव से वे पूर्णरीत्या परीचित थे, इसीलिये इनसे कुछ भय भी करते थे। साधु-संन्यासी के लिये जिस प्रकार स्त्री स्पर्श पाप है, उसी प्रकार रूई भरे हुए गुदगुदे वस्त्र का उपयोग करना पाप है। इसीलिये महाप्रभु सदा केले के पत्तों पर सोया करते थे। वे दिन रात्रि श्रीकृष्ण विरह में छटपटाते रहते थे। आहार भी उन्होंने बहुत ही कम कर दिया था। इसी कारण उनका शरीर अत्यन्त क्षीण हो गया था। उस क्षीण शरीर को केले के पत्तों पर पड़ा देखकर सभी भक्तों को अपार दुःख होता था, किन्तु प्रभु के सम्मुख कुछ कहने की हिम्मत ही किसकी थी? सब मन मसोसकर इस दारुण दुःख को सहते और विधाता को धिक्कारते रहते कि ऐसा सुकुमार सुन्दर स्वरूप देकर फिर इस प्रकार का जीवन प्रभु को प्रदान किया, यह उस निर्दयी दैव का क्रूर कर्म है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जो पुरुष पूज्य श्रीविग्रहों में ही श्रद्धा के साथ श्रीहरि की पूजा करता है और भगवद्भक्तों की तथा अन्य पुरुषों की पूजा नहीं करता, उनकी उपेक्षा करता है, उसे शास्त्रों में प्राकृत भक्त कहा गया है। श्रीमद्भा. 11/2/47