श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी27. पत्नी-वियोग और प्रत्यागमन
पतिर्हि देवो नारीणां पतिर्बन्धुः पतिर्गतिः। पत्नी गृहस्थाश्रम में एक सर्वश्रेष्ठ और सर्वप्रधान वस्तु है, गृहिणी के बिना गृहस्थ ही नहीं। पत्नी गृहस्थ के कार्यों में मन्त्री है, सेवा करने में दासी है, भोजन कराने में माता के समान है, शयन में रम्भा के समान सुखदात्री है, धर्म के कार्यों में अर्धांगिनी है, क्षमा में पृथ्वी के समान है अर्थात् गृहस्थ की योग्य गृहिणी ही सर्वस्व है। जिसके घर में सुचतुर सुन्दरी और मृदुभाषिणी गृहिणी मौजूद है, उसके यहाँ सर्वस्व है, उसे किसी चीज की कमी ही नहीं और जिसके गृहिणी ही नहीं, उसके है ही क्या? लोकप्रिय निमाई पण्डित की पत्नी लक्ष्मीदेवी ऐसी ही सर्वगुणसम्पन्ना गृहिणी थीं। वे पति को प्राणों के समान प्यार करती थीं, सास की तन-मन से सदा सेवा करती रहती थीं और सदा मधुर और कोमल वाणी से बोलती थीं। उनका नाम ही लक्ष्मीदेवी नहीं था, वस्तुतः उनमें लक्ष्मीदेवी के सभी गुण भी विद्यमान थे। वे मत्र्यलोक में लक्ष्मी के ही समान थीं। ऐसी ही पत्नी को तो नीतिकारों ने लक्ष्मी बताया है- यस्य भार्या शुचिर्दक्षा भर्तारमनुगामिनी। अर्थात ‘जिसकी भार्या पवित्रता रखने वाली, गृहकार्यों में दक्ष और अपने पति के मनोअनुकूल आचरण करने वाली है, जो सदा ही मीठी वाणी बोलती है, असल में तो वही लक्ष्मी है। लोग जो ‘लक्ष्मी-लक्ष्मी’ पुकारते हैं, वह कोई और लक्ष्मी नहीं हैं।’ निमाई पण्डित की पत्नी लक्ष्मीदेवी सचमुच में ही लक्ष्मी थीं। पूर्व बंगाल की यात्रा के समय माता के आग्रह से निमाई लक्ष्मीदेवी को उनके पितृगृह में कर गये थे। पति के वियोग के समय पतिव्रता लक्ष्मीदेवी ने बड़े ही प्रेम से अपने स्वामी के चरण पकड़ लिये ओर वियोग-वेदना का स्मरण करके वे फूट-फूटकर रोने लगीं। निमाई ने उन्हें धैर्य बँधाते हुए कहा- ‘इस प्रकार दुःखी होने की कौन-सी बात है? मैं बहुत ही शीघ्र लौटकर आ जाऊँगा, तब तक तुम यहीं रहो। मैं बहुत दिन के लिये थोड़े ही जाता हूँ। वैसे ही दस-बीस दिन घूम-घामकर आ जाऊँगा।’ उन्हें क्या पता था, कि यह लक्ष्मी देवी से अन्तिम ही भेंट है, इसके बाद लक्ष्मी देवी से इस लोक में फिर भेंट न हो सकेगी। लक्ष्मीदेवी को भाँति-भाँति से आश्वासन देकर निमाई पण्डित ने पूर्व बंगाल की यात्रा की। इधर लक्ष्मीदेवी पति के वियेाग में खिन्न चित्त से दिन गिनने लगीं, उन्हें पति के बिना यह सम्पूर्ण संसार सूना-ही-सूना दृष्टिगोचर होता था। उन्हें संसार में पति के सिवा प्रसन्न करने वाली कोई भी वस्तु नहीं थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ स्त्रियों का पति ही देवता है, पति ही बन्धु है और पति ही गति है। पति के समान उनकी कोई दूसरी गति नहीं और पति के समान उनका कोई दूसरा देवता नहीं। सु. र. भां. 366/14