श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी112. प्रेम रस लोलुप भ्रमर भक्तों का आगमन
क्वचित क्वचिदयं यातु स्थातुं प्रेमवशंवद: । कस्तूरी को कितना भी छिपाकर रखो, उसकी गन्ध फैल ही जाती है और उसके प्रभाव को जानने वाले पुरुष दूर से ही जान जाते हैं कि यहाँ पर कीमती कस्तूरी विद्यमान है। प्रेम छिपाने से नहीं छिपता। प्रेम को विज्ञापन की आवश्यकता नहीं। कमल के खिलते ही मधु-लोलुप भ्रमर अपने आप ही उसके ऊपर टूट पड़ते हैं। रस होना चाहिये। भ्रमरों की क्या कमी। सर्दी के दिनों में आग जलाकर स्वतन्त्र स्थान में बैठ जाओ, तापने वाले अपने आप ही एकत्रित हो जायँगे-उन्हें बुलाने की आवश्यकता न पड़ेगी। प्रेमार्णव गौरांगदेव के संसर्ग में रहकर जो पहले प्रेम रस का पान कर चुके थे। उन्हें भला उनके सिवा दूसरी जगह वह रस कहाँ मिल सकता था? जिनके कर्णों में उस अद्वितीय रस की प्रशंसा भी पड़ गयी थी वे उस रसराज महासागर के दर्शन के लिये लालायित बने हुए थे। सार्वभौम भट्टाचार्य के मुख से प्रभु की प्रशंसा सुनकर कटकाधिपति महाराज प्रतापरुद्रदेव जी भी प्रभु के दर्शनों के लिये अन्यन्त ही उत्कण्ठित बने हुए थे। श्रीजगन्नाथ जी के मन्दिर के सभी कर्मचारी, पुरी के बहुत से गण्यमान पुरुष तथा अनेक साधु संत प्रभु के दर्शन की इच्छा रखते थे। प्रभु के पुरी पधारने का समाचार सुनकर भट्टाचार्य सार्वभौम के सहित बहुत से प्रेमी पुरुष प्रभु से मिलने के लिये आये। प्रभु ने सभी को प्रेमपूर्वक बैठने के लिये कहा। सभी प्रभु के चरणों में प्रणाम करके बैठ गये। सार्वभौम भट्टाचार्य प्रभु को सबका पृथक पृथक परिचय कराने लगे। सबसे पहले उन्होंने काशी मिश्र का परिचय दिया- ‘ये महाराज के कुलगुरु और राज्यपुरोहित श्रीकाशी मिश्र हैं। प्रभु के चरणों में इनका दृढ़ अनुराग है। आपके चले जाने पर ये दर्शन के लिये बड़े ही उत्कण्ठित से बने रहे। यह घर, जिसमें प्रभु ठहरे हुए हैं, इन्हीं का है।’ प्रभु ने मिश्र जी की ओर प्रेमभरी चितवन से देखते हुए कहा- ‘मिश्र जी, मैं आज आपके दर्शनों से कृतार्थ हुआ। आप तो मेरे पिता के समान हैं। आपके घर में रहकर मैं भक्तों के सहित कृष्ण कीर्तन करता हुआ कालयापन करूँगा और नित्य आपके दर्शन पाता रहूँगा। इससे बढ़कर मेरे लिये और कौन सी सौभाग्य की बात हो सकती है?’ हाथ जोड़े हुए अत्यन्त ही विनीत-भाव से काशी मिश्र ने कहा- ‘प्रभो ! यह घर आपका ही है और सेवा करने के लिये यह दास भी सदा आपके चरणों के समीप ही बना रहेगा। आप इसे अपना निजी सेवक समझकर जो भी आज्ञा हो नि:संकोच भाव से कर दिया करें।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ प्रेम परतन्त्र भ्रमर चाहे कहीं भी रहने के लिये क्यों न चला जाय, किन्तु वहाँ भी वह हृदय से कमल को नहीं भूल सकता। सु. र. भां. 232/44