श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी136. श्री रूप को प्रयाग में महाप्रभु के दर्शन
देशे देशे दुराशाकवलितहृदयो निष्कृपाणां नराणां गौड़ेश्वर के मन्त्री रूप और सनातन-दोनों भाइयों को पाठक भूले ने होंगे। रामकेलि नामक ग्राम में प्रभु के दर्शन करके और नूतन जन्म पाकर ये दोनों भाई प्रभु से विदा हुए। प्रभु के दर्शनों से ही इनके भीतर छिपी हुई भावुकता और भगवद्भक्ति एकदम प्रस्फुटित हो उठी। इन्हें अपने पूर्वकृत्यों पर पश्चात्ताप होने लगा। साधु-संग से संसार में मनुष्य-शरीर की सार्थकता का बोध होता है और तभी अपने गतजीवन की निरर्थकता का भान होने लगता है। उसी समय हृदय में पश्चात्ताप की अग्नि जलने लगती है, उस अग्नि में पड़कर सुवर्ण के समान मन दहकने लगता है। पश्चात्तापरूपी अग्नि के उत्ताप से मन का मैल जलकर भस्म हो जाता है और फिर केवल शुद्ध सुवर्ण ही शेष रह जाता है। फिर उसमें मैल का नाम तक नहीं रहता, वह एकदम निर्मल होकर चमकने लगता है, उसी में होकर भगवान के दर्शन होते हैं। दर्शन क्या होते हैं भगवान उसमें आकर विराजमान हो जाते हैं, और फिर उसे अपना घर ही नहीं, कलेवर बना लेते हैं। इसलिये साधु-संग का प्रधान फल पूर्वकृत पापों का पश्चात्ताप ही है। जिसे साधु-संग पाकर भी पश्चात्ताप नहीं हुआ, उसे या तो यथार्थ साधु-संग ही प्राप्त नहीं हुआ या वह पूर्वजन्मकृत पापों का कारण इतना अपात्र है कि अभी उसे चिरकाल तक साधु-सेवा करने की आवश्यकता है। जब भी पूर्वकृत कर्मों के लिये हृदय में घबड़ाहट हो और प्रभु-प्राप्ति के लिये हृदय सदा छटपटाता-सा रहे, तभी समझना चाहिये कि साधु संगति का वास्तविक फल मिल गया। ये दोनों ही भाई भाग्यवान थे, भगवान के निज जन थे, अनुग्रहसृष्टि के जीव थे। प्रभु के दर्शन मात्र से ही इनकी काया पलट हो गयी। प्रभु के दर्शन करते ही इन्हें पद, प्रतिष्ठा, परिवार, पैसा और प्रिय पदार्थों से एकदम घृणा हो गयी। इनका मनमधुप वृन्दावन की कुंजों में विहार करने के लिये छटपटाने लगा। जिस प्रतिष्ठित पद के लिये संसारी लोग सब कुछ करने के लिये तैयार हो जाते हैं, वही राजमन्त्री का पद उन्हें घोर बन्धन-सा प्रतीत होने लगा। रूप तो लौटकर गौड़ गये ही नहीं। वे अपनी धन-सम्पत्ति को नाव पर लाद कर दस-बीस नौ के साथ अपनी जन्मभूमि फतेहबाद को चले गये। वहाँ जाकर अपना आधा धन तो उन्होंने ब्राह्मण और कंगालों को बांट दिया। कुछ परिवार के लिये रख दिया और दस हजार रूपये गौड़ में एक मोदी की दुकान पर जमा कर दिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हाय! मैं ही एक ऐसा कुबुद्धि हूँ जो दुराशाग्रस्त हृदय से देश-देश में निर्दयी धनी मनुष्यों के आगे दौड़-दौड़कर अपना जन्म व्यर्थ गँवा रहा हूँ। हे राधाकान्त! सुबुद्धि तो वे हैं जो अत्यन्त पुनीत कानन के भीतर समाधि में तुम्हारे चरणाविन्दों का ध्यान करते-करते रोमांचित-शरीर से दिन व्यतीत करते रहते हैं। सु. र. भां. 392।230